अद्भुत अष्टुलक्ष्मीऔ कोविल : चेन्नई
प्रोफेसर के.के.नम्बूदिरि
तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई के पास समुद्र तटरेखा के निकट बना है, अष्टलक्ष्मी कोविल यानि एक हिंदू मंदिर। यह मंदिर देवी लक्ष्मी और उनके आठ रूपों को समर्पित है। इस मंदिर की विशेषता है कि इसके ‘बहु-स्तरीय ’ अभयारण्यों का इस प्रकार से निर्माण किया गया है कि दर्शन करते समय भक्तगण मंदिर में किसी भी देवी के ऊपर (अभयारण्य पर) कदम नहीं रखते हैं।
समुद्र तट पर अष्टलक्ष्मी मंदिर का विहंगम दृश्य
विशाल गुंबद वाले अष्टलक्ष्मी मंदिर में घड़ी की सुईयों की दिशा में आगे बढते हुए ही सभी प्रतिमाओं के दर्शन किए जाते हैं। अंत में नवम मंदिर है, जो भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को समर्पित है। यहां देवी लक्ष्मी को आठ अलग-अलग रूपों में, यानि अष्टलक्ष्मी के रूप में, नौ गर्भगृहों में, चार स्तरों पर प्रतिमाएं अलग-अलग तल पर स्थापित किया गया हैं।
लक्ष्मी और विष्णुजी का मंदिर दूसरे स्तर पर है। प्रथम पूजा-अर्चना यहीं से शुरू होती है और श्रृद्धालु सीढियों से चढते हुए, तीसरे स्तर की ओर जाते हैं, जिसमें संतान लक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी और गजलक्ष्मी के मंदिर हैं। चौथे स्तर पर मात्र धनलक्ष्मी मंदिर स्थित है। इसके बाद नीचे आते समय पहले तल पर आदिलक्ष्मी, धैर्यलक्ष्मी और ध्यान लक्ष्मी स्थापित है।
मूर्तियों की स्थापना : महालक्ष्मी को समर्पित मंदिर के गर्भगृह में नौ अलग-अलग मंदिर हैं। यह सभी अलग-अलग मंदिर हैं। यह सब अलग-अलग स्तरों पर इस तरह से बनाएं गए हैं कि सभी आठ रूप किसी एक स्थान से दिखाई देते हैं। कुल चार स्तरों पर नौ ही अलग अलग गर्भगृह हैं।
वैसे तो देश में लक्ष्मीजी के अनेक एक से बढकर एक सुन्दर मंदिर हैं पर चेन्नई के अडयार इलाके में समुद्र के किनारे पर बना अष्टलक्ष्मी मंदिर बेहद खास है। इस मंदिर में महालक्ष्मी (उनके आठ रूपों में) और महाविष्णु प्रतिस्थापित किए गए हैं। इस मंदिर में देवी लक्ष्मी के अष्ट स्वरूपों में लक्ष्मी जी की प्रतिमाओं के अलावा गणेशजी और अन्य कई देवी-देवाताओं की भी मूतियां स्थापित हैं। इसके अलावा, श्री विष्णु के दशावतार के चित्र बनाए हैं।
ॐ आकार में बना विशाल मंदिर :
लक्ष्मी के सभी स्वरूपों को समर्पित ॐ के आकार में बना माता अष्टलक्ष्मी का यह मंदिर देखने में भी बहुत सुंदर है। दक्षिण भारत के अन्य मंदिरों की भांति, इस पर भी विशाल कलश बनाया गया है। यहां देवी लक्ष्मी के आठ स्वरूप विराजमान हैं, इसलिए इसे अष्टलक्ष्मी मंदिर कहा जाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार, अष्टलक्ष्मी के दर्शन करने से श्रृद्धालुओं को धन, विद्या, वैभव, शक्ति और सुख की प्राप्ति होती है। महालक्ष्मी के आठ रूपों को मंदिर के आठ भागों द्वारा दर्शाया गया है।
इसका निर्माण “ॐ” आकृति के रूप में होने से, इसे “ॐ” क्षेत्र कहा जाता है। मंदिर का डिजाइन और निर्माण प्रथम वैदिक मंत्र, प्रणव ॐ के आकार में किया गया है। बंगाल की खाडी की चिरस्थायी गर्जन, तरंग प्रणव ध्वनि को पुन: उत्पन्न करते हैं और एक याद दिलाते हैं कि भगवान और देवी प्राणध्वनि में निवास करती हैं। इसलिए ओंकार क्षेत्र के रूप में जाना जाता है।
32 कलशों वाला त्रिस्तरीय मंदिर : मंदिर का निर्माण कांचीकामकोटी मठ के श्री चन्द्रशेखरेंद्र सरस्वती की इच्छा पर किया गया था। विख्यात विद्वान श्रीनिवास वरदाचार्य के कुशल नेतृत्व में देवी लक्ष्मी के भक्तों की एक समिति ने 1974 में इस मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया था। जनवरी 1974 में जनभागीदारी से इसकी नींव रखी गई और 5 अप्रैल 1976 को अहोबिल मठ के 44वें गुरु वेदांतीर श्री यतेन्द्र स्वामी की उपस्थिति में मंदिर के अभिषेक के साथ इस मंदिर में विधिवत पूजा-अर्चना आरम्भ की गई थी।
तीन मंजिला यह मंदिर 65 फीट लंबा और 45 फीट चौड़ा है और इसके चारों ओर विशाल आंगन है। मंदिर की द्रविड वास्तुशैली उथिरामेरूर के वैंकट सुंदरराज पेरुमल मंदिर से ली गई है। इस मंदिर को 1976 से ही एक संरक्षित क्षेत्र माना गया है।
2012 में, 70 लाख रुपए की लागत से मंदिर का जीणोद्धार (पुनर्निमाण) कराया गया था। मंदिर में कुल 32 कलशों का नवनिर्माण किया गया था, जिसमें गर्भगृह के ऊपर 5.5 फीट ऊंचा स्वर्णजटित कलश भी शामिल है। एक और विशेषता है कि मंदिर के गुम्बदों का निर्माण इस प्रकार से किया गया है कि गुम्बदों की छाया जमीन पर नहीं पड़ती है।
धर्म और संस्कृति का प्रभाव : अष्टलक्ष्मी मंदिर में देवी लक्ष्मी को आठ अलग-अलग रूपों में विराजमान किया गया है। अत: भक्तगण आठ रूपों में ही उनकी पूजा–अर्चना करते हैं। श्रृद्धालुओं का मानना है कि देवी के आठ अलग-अलग रूपों की आराधना करने से उन्हें आशीवायद के रूप में धन, संतान, सफलता, समृद्धि, साहस, शौर्य, धान्य (भोजन) और ज्ञान की आठ विभिन्न प्रकार की उपलब्धियों में सफलता प्रदान करती है। मंदिर में प्रति दिन हजारों भक्त दर्शन करने आते हैं, जिन्हें तीर्थयात्री भी कहा जाता है। दर्शनार्थी देवियों के चरणों में कमल के फूल चढा कर जीवन में सुख-संपदा का आशीर्वाद मांगते हैं। कमल के फूल अर्पित करना यहां की परम्परा है।
मंदिर की प्रमुख देवी महाविष्णु के साथ महालक्ष्मी हैं। यद्यपि यह मंदिर विशेष रूप से महालक्ष्मी को समर्पित है परन्तु भगवान महाविष्णु को भी मंदिर में एक विशेष स्थान प्राप्त है क्योंकि वह उनकी पत्नी हैं। हालांकि, महालक्ष्मी के आठ रूप तीन तलों में फैले हुए हैं, फिर भी पूजा की शुरुआत मुख्य तीर्थस्थल से होती है और तत्पश्चात ही दर्शनार्थी महालक्ष्मी के आठ अलग-अलग रूपों की आराधना कर सकते हैं।
लक्ष्मी के आठ रूप हैं : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धैर्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, विद्याक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी और धान्यलक्ष्मी। धन के आठ प्रकार जो इन रूपों यानि साहस, धन, अन्न, समृद्धि, सफलता, ज्ञान, और वीरता से संबंधित हैं। लोग महालक्ष्मी और महाविष्णु से प्रार्थना करते हैं ताकि वे सभी आठ धन प्राप्त करने की क्षमता के साथ धन्य हो जाएं।
श्री महाविष्णु तथा श्री नारायण को समर्पित, अष्टलक्ष्मी मंदिर एकमात्र मंदिर है जो तमिलनाडु के पूवी तट पर बंगाल की खाड़ी में चेन्नई के बसंत नगर क्षेत्र के तट के पास स्थित है। चेन्नई सेंट्रल से अष्टलक्ष्मी मंदिर की दूरी लगभग 16 कि.मी. है।
परिसर में अन्य मंदिर : मुख्य मंदिर के अलावा, मंदिर परिसर में अन्य मंदिर भी हैं। दशावतार सन्निधि या भगवान विष्णु के दस रूपों को समर्पित मंदिर परिसर के अंदर स्थित है। मुख्य तीर्थ से बाहर, गुरुवायुरप्पन और गणेश को समर्पित मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व की ओर हैं, जबकि दक्षिण – पश्चिम की ओर कमला विनयगर सन्निधि को समर्पित मंदिर तथा अंजनेय (हनुमान) को समर्पित मंदिर उत्तर – पश्चिम की ओर हैं। मंदिर के उत्तर – पश्चिम कोने में ही धन्वंतरी का मंदिर है। मंदिर के अंदर मुख्य देव गरुडवर सन्निधि (गरूड) का मंदिर है।
मुख्य मंदिर को समुद्र के किनारे बनाने का कारण है कि पुराणों के अनुसार, जब देवताओं ने अनंत जीवन के लिए अमृत की खोज में समुद्र–मंथन किया, तब समुद्र से अनेक वस्तुएं प्राप्त हुईे थीं। सर्वप्रथम देवी महालक्ष्मी समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रकट हुई थीं। श्रीविष्णु जी ने तुरन्त ही उनसे विवाह कर लिया। यह देवी महालक्ष्मी ही हैं जो अष्टार्यम अर्थात अष्टम सिद्धियां और अष्ट ऐश्वर्यम (आठ गुना धन) का आशीर्वाद प्रदान करती हैं। अष्टार्यम को मंदिर में चित्रित किया गया है। समुद्र से देवी के प्रकट होने के कारण ही, देवी के लिए समुद्र के सामने तट पर एक मंदिर का निर्माण कर और उन्हें आठ रूपों में स्थापित और संरक्षित किया गया है।
अष्टांग विमानन : इस मंदिर का निर्माण अष्टांग विमानन (आठ खंड) शैली के मॉडल पर किया गया है। यह मंदिर निर्माण की प्राचीन शैलियों में एक है। यह अष्टांग विमानन शैली तिरुकोष्ठियुर में पाई जाती है जहां श्री रामानुज ने तिरुक्कोट्टियुर नांबी, मदुरई (कुडलझरगर), तिरुत्तंगल, कांची (वैकुंठनाथर मंदिर) और उत्तरामुरुर के चरणों में अष्टाक्षर मंत्र का अर्थ सीखा था।
विमानन शैली में विशेष लक्षण हैं, त्रिस्तरीय (तल) घुमावदार सीढि़यां, जो दाहिने से ऊपर की ओर जाती हैं और उनमें कोई रोक नहीं होती है। यही तीन स्तरीय प्रणाली अष्टांग विमान शैली की विशेषता है। उसी के अनुसार, भगवान विष्णु के तीन रूप (खडे, बैठे हुए और झुकते हुए) प्रत्येक तल में दर्शाए गए हैं। भूतल पर श्री विष्णु और महालक्ष्मी खड़ी मुद्रा में हैं।
आम तौर पर, मंदिरों को मूल छह सिद्धांतों अर्थात आदिशांतिम (स्थिर स्थान निवास), पदम् (चरण), प्रस्तारम (दीवारें), खांडम (ग्रीवा), श्रीकारम (सिर) और स्तूप (कोपुला- अभ्युदय) पर बनाया जाता है। इसे षड़़गम (छह विभाजनों) के रूप में माना गया है। उसी के अनुसार, अष्टांग विमानम में, खांडम, प्रस्तारम्, खांडम, श्रीकारम और स्तूप के साथ एक और तल का निर्माण किया जाता है। मुख्य गर्भगृह में, मंदिर की अधिष्ठात्रि देवी के रूप में महालक्ष्मी के साथ श्री विष्णु जी का अभिषेक किया जाता है।
आराधना – पूजा की प्रकृति : दूसरे तल पर स्थित महालक्ष्मी और महाविष्णु से ही पूजा-अर्चना शुरू होती है। यहां दंडवत अर्चना करने के बाद, सीढियों से क्रमश:: पहले, दूसरे और तीसरे तल पर जाना होता है, जहां संतानलक्ष्मी (संतानदात्री देवी) का स्थान है। विद्यालक्ष्मी (ज्ञान की देवी), विजयलक्ष्मी (सफलता की देवी) और गजलक्ष्मी (समृद्धि की देवी) के स्थान भी हैं। यहां पूजा करने के बाद, सीढियों से चौथे स्तर पर जाते हैं, जहां धनलक्ष्मी (धन की देवी) का स्थान है। सीढियों से ही नीचे उतरते हुए/ मंदिर से बाहर निकलते समय, आदिलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी और धैर्य लक्ष्मी के सामने प्रार्थना करते हैं।
उत्सव और त्यौहारों पर विशेष कार्यक्रम : इस मंदिर में होने वाले मुख्य उत्सवों में नवरात्रि, पवित्र उत्सवम्, धनुर्मासपूजा, गोकुलाष्टमी, दीपावली, कीर्तिगई और पोंगल प्रमुख हैं। श्रीकृष्ण जयन्ति को यहां गोकुलाष्टमी कहा जाता है और इसे बडी धूमधाम से मनाया जाता है। नवरात्रि का उत्सव दस दिनों तक चलता है। पवित्र उत्सवम् प्रति वर्ष पूरे पांच दिन आयोजित किया जाता है, जिसे आत्मा की स्वच्छता का द्योतक माना गया है। इस दौरान, सबसे पहले कलशों और बर्तनों से देवताओं की पूजा कर के सभी देवियों और देवताओं को मालाएं पहनाए जाने के पश्चात, यात्रा निकाली जाती है और वापसी पर सभी देवियों और देवताओं की आरती करने की परम्परा है। photo
दीपावली के त्यौहार पर पूरे परिसर को तीन दिन पहले ही बिजली की रंग बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता है। साथ ही बडी संख्या में घी के दीपक मंदिर में तथा मंदिर के बाहर जलाए जाते हैं। मजेदार बात है तक दीपावली की रात्रि में दीपावली पूजन के समय और उसके बाद रात दो बजे बतियां बुझा दी जाती हैं। मंदिर के भीतर और बाहर चारों ओर केवल दीए ही दीए जलते हुए दिखाई देते हैं।
यहां भक्तगण 21 से 51 दीप जलाते है और जब मंदिर के बाहर भी जगह नहीं मिलती है तो बाहर समुद्र के किनारे का मैदान भी दीपों से जगमगाने लगता है।
दीपावली के अवसर पर लेखक द्वारा लिया गया मंदिर के कलश का एक चित्र।
इन दिनों स्थानीय टूअर ऑपरेटर्स पर्यटकों को विशेष पैकेज देते हैं। यह दीप दीवाली देखने पर्यटकों को देर रात्रि तक लाया जाता है। एक ओर दीयों की रोशनी, दूसरी ओर गहन अंधेरे में लहलहाते समुद्र की लहरों की गर्जना का दृश्य देखने हेतु श्रृद्धालु यात्री/ पर्यटक रात भर बैठे रहते हैं। कीर्तिगई उत्सव के दौरान भी दीप जलाने की परम्परा है। मंदिर में पोंगल उत्सव का भी आयोजन किया जाता है, इस दिन लोग महालक्ष्मी और महाविष्णु का आशीर्वाद लेने आते हैं।
समय: सुबह 6:30 बजे से दोपहर 12:00 बजे, शाम 6:00 बजे तक। शुक्रवार, शनिवार और रविवार- सुबह का समय: सुबह 6:30 बजे – दोपहर 1:00 बजे तक
धनुर्मास महीने में पूजा के लिए मंदिर को प्रात: 4.00 बजे से ही खोल दिया जाता है। |
वैसे तो आप मंदिर के आसपास समुद्र तट पर कितना ही समय बिताएं लेकिन मंदिर विधिपूर्वक दर्शन और पूजा आराधना में एक से दो घंटे लग जाते हैं।
————————————
*लेखक : केरल विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त।