*अजय मोहन सिंह
दतिया मध्य प्रदेश के ग्वालियर संभाग में एक प्राचीन शहर है, जिसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। ब्रिटिश राज के समय से पहले यह एक रियासत था। दतिया शहर में धार्मिक स्थलों के अलावा भी कई पर्यटन स्थल हैं। जिले में भी घूमने फिरने के लिए बहुत कुछ है। पुराना शहर पत्थर की दीवार से घिरा हुआ है। यहां का विश्व प्रसिद्ध पीतम्बरा पीठ यानि बगलामुखी देवी मंदिर, धार्मिक भक्तों के लिए एक संपन्न तीर्थ स्थान भी है। यहां के रुचि के स्थान हम अपनी यात्रा की शुरूआत विश्व प्रसिद्ध पीतम्बरा पीठ से करते हैं।
पीताम्बरा पीठ
दतिया शहर में प्रवेश करते ही एक भव्य मन्दिर दिखाई देता है और यही है, पीताम्बरा पीठ, जो देश की लोकप्रिय शक्तिपीठों में से एक मानी जाती है। पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही ‘मां बगलामुखी’ और ‘मां धूमावती’ के मुख्य मन्दिर और महाभारत काल का शिव जी का बनखंडेस्वर मंदिर हैं।
इस सिद्धपीठ की स्थापना एक सिद्ध संत, जिन्हें लोग ‘स्वामीजी महाराज’ कहते थे, ने 1935 में दतिया के राजा शत्रुजीत सिंह बुन्देला के सहयोग से की थी। कोई नहीं जानता कि वह संत कहां से आए थे, उनका नाम क्या था ? और उन्होंने भी इस बारे में कभी किसी को नहीं बताया। बस एक बात सबको पता थी कि श्री स्वामी महाराज परिव्राजकाचार्य दंडी स्वामी ब्रह्मचारी संत थे, जो अंतिम समय तक दतिया में ही रहे। कभी इस स्थान पर एक बड़ा शमशान हुआ करता था। आज यह चमत्कारी धाम स्वामीजी के जप और तप के कारण ही एक सिद्ध पीठ के रूप में जाना जाता है।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके साथ जुड़े लोग अभी भी उन्हें आध्यात्मिकता का प्रतीक मानकर सम्मान करते हैं। उन्होंने मानवता और देश के हित और कल्याण के लिए कई अनुष्ठानों और साधनाओं का नेतृत्व किया। स्वामी जी प्रकांड विद्वान एवं लेखक थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी में कई पुस्तकें भी लिखी थीं। इनमें से कई पुस्तकें मंदिर के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं।
मंदिर परिसर : वर्तमान में पीठ का रखरखाव एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। आश्रम में ‘तपस्थली’ (ध्यान केन्द्र) है। श्री स्वामी जी द्वारा स्थापित एक संस्कृत पुस्तकालय है जिसमें आश्रम के इतिहास और विभिन्न प्रकार के साधनाओं और तंत्रों के गुप्त मंत्रों की व्याख्या करने वाली पुस्तकें अनुरक्षित की गई हैं। आश्रम की एक अनूठी विशेषता है कि यहां संस्कृत भाषा का निशुल्क प्रचार किया जाता है। आश्रम के विद्यालय में प्रतिदिन बच्चों को संस्कृत पढ़ाई जाती है। आश्रम में वर्षों से संस्कृत वाद-विवाद कराया जाता रहा है। आजकल प्रति वर्ष संस्कृत दिवस पर एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन भी किया जाता है।
चमत्कारी धाम :
श्री स्वामी जी द्वारा स्थापित श्री पीताम्बरा पीठ, बगलामुखी माता के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। स्वामी जी ने आश्रम के इसी परिसर में ही ‘बगलामुखी देवी’ और ‘धूमावती माई’ की प्रतिमाएं स्थापित करवाई थी। धूमावती और बगलामुखी को दस महाविद्याओं में स्थान प्राप्त हैं। इसके अलावा, आश्रम के बड़े क्षेत्र में परशुराम, हनुमान, काल भैरव और अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भी स्थापित किए गए हैं। इन्हे देखने देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालुओं और पर्यटकों का यहां आना-जाना लगा रहता है। कहा जाता है कि मां पीतांबरा देवी दिन में तीन बार अपना रुप बदलती हैं और मां के दर्शन से सभी भक्तों की मनोकामना पूरी होती है।
मां पीताम्बरा की प्रतिमा :
भक्तों को मां के दर्शन एक छोटी सी खिड़की से ही होते हैं। मां पीताम्बरा बगलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक माना जाता है। देवी मां की प्रतिमा के हाथों में मुग्दर, पाश, वज्र एवं शत्रुजिव्हा है। मान्यता है कि इनकी आराधना करने से साधक को विजय प्राप्त होती है। मुकदमे आदि में इनका अनुष्ठान सफलता प्राप्त करने वाला माना जाता है। यहां के विद्वान पंडित तो यहां तक कहते हैं कि जो राज्य आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी हिंसा से प्रभावित हैं, वह मां पीताम्बरा की साधना व अनुष्ठान कराएं, तो उन्हें ऐसी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है। लोगों का विश्वास है यहां मां के दरबार में किए गए हवन यज्ञ कभी असफल नहीं होते हैं।
धूमावती मन्दिर : पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही मां भगवती धूमावती देवी का देश का एक मात्र मन्दिर है। ऐसा कहा जाता है कि मन्दिर परिसर में मां धूमावती की स्थापना करने के लिए अनेक विद्वानों ने स्वामी जी महाराज को मना किया था। तब स्वामी जी ने कहा कि मां का भयंकर रूप तो दुष्टों के लिए है, भक्तों के प्रति माता बहुत ही दयालु हैं। समूचे विश्व में धूमावती माता का यह एक ही मन्दिर है। जब मां पीताम्बरा पीठ में मां धूमावती की स्थापना हुई थी, उसी दिन स्वामी महाराज ने अपने ब्रह्मलीन होने की तैयारी शुरू कर दी थी। ठीक एक वर्ष बाद मां धूमावती की जयन्ती के दिन ही स्वामी महाराज ब्रह्मलीन हो गए।
मां धूमावती की आरती सुबह-शाम होती है। लेकिन भक्तों के लिए धूमावती का मन्दिर केवल शनिवार के दिन सुबह-शाम दो घंटे के लिए खुलता है। मां धूमावती को नमकीन पकवान, जैसे कि (विशेष रूप से मंगोडे) कचौड़ी और समोसे आदि का भोग लगाया जाता है।
यहां मौजूद शिव को समर्पित वनखंडेश्वर मन्दिर का अपना एक विशेष स्थान है। मंदिर के प्रांगण में स्थित वनखंडेश्वर महादेव शिवलिंग को पुरातत्वविदों ने महाभारत काल का होने का प्रमाणित किया है।
एक ऐतिहासिक तथ्य :
पीताम्बरा पीठ मन्दिर के साथ एक रोचक ऐतिहासिक सत्य भी जुड़ा हुआ है, जिसका श्री बी.के. नेहरू ने अपनी एक पुस्तक ‘नाइस गाइज़ फिनिश सैकंड’ में उल्लेख किया है। “भारत और चीन में युद्ध छिड़ा हुआ था। उस समय देश में आर्थिक संकट छा गया था और देश में परिस्थितियां विषम होती जा रही थीं। भारत के मित्र देशों ने भी मौन धारण कर लिया था। नेहरू जी बहुत परेशान थे। ऐसे में राष्ट्रपति कैनेडी को एक पत्र देने के लिए, मुझे दिल्ली बुलाया था और मैं अपनी माता जी, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू के साथ नेहरू जी से मिलने गया था। बात बात में माता जी ने नेहरू जी को दतिया में पीताम्बरा पीठ के स्वामी जी से मिलने की सलाह दी, मगर उन्होंने मना कर दिया। घर आने पर माता जी ने बताया कि मां के मंदिर में पूजा अर्चना और हवन यज्ञ कराने से हम पर आ रही विपदा का निराकरण हो सकता है। ऐसे कठिन हालात में बात आई गई हो गई।”
“मैनें अमेरीका जाकर राष्ट्रपति को पत्र दिया उसके कोई छ: या सात दिन बाद ही हमें संयुक्त राष्ट्र संघ से संदेश मिला कि चीन ने युद्ध विराम घोषित कर दिया है। कुछ दिन बाद, भारत आने पर माता जी से चर्चा होने पर, उन्होंने हंस कर कहा कि सब माता रानी की कृपा है और उन्होंने मां पीतांबरा पीठ ले चलने को कहा। मैं उनकी बात कैसे टालता और अगली सुबह ही उन्हें साथ लेकर दतिया जाने का प्रोग्राम बनाया।”
“वहां मुझे पता लगा कि उस समय स्वामी महाराज ने सिद्ध पंडितों को बुलाया और राष्ट्रहित में एक 51 कुंडीय महायज्ञ प्रारंभ किया गया। यज्ञ के नौंवे दिन जब यज्ञ का समापन होने वाला था, चीन की सेना शान्त हो गई यानि लड़ाई रोक दी और 11वें दिन अंतिम आहुति के साथ ही चीन ने अपनी सेनाएं वापस बुला ली थीं। इस घटना के बाद से पीताम्बरा मंदिर में मेरी गहरी आस्था बढ़ गई। उसके पश्चात मैं विशेष आग्रह करके नेहरू जी को लेकर दतिया गया और हम स्वामी जी से मिले।”
“किसी से यह भी पता लगा कि सेना के दो अधिकारियों ने देश की रक्षा के लिए बाबा से गुहार लगाई थी। इसके लिए देश के मुखिया के तौर पर नेहरू जी को यजमान मानकर, मां बगलामुखी का 51 कुंडीय महायज्ञ किया गया था। वह दो अधिकारी कौन थे आज तक किसी को ज्ञात नहीं है। मन्दिर प्रांगण में उस समय यज्ञ के लिए बनाई गई यज्ञशाला आज भी देख सकते हैं।”
जब-जब देश के ऊपर विपत्तियां आती हैं तब-तब कोई न कोई देश भक्त गोपनीय रूप से मां बगलामुखी की साधना में यज्ञ-हवन अवश्य ही कराते हैं। मां पीतांबरा शक्ति की कृपा से देश पर आने वाली बहुत सी विपत्तियां टल गई हैं। इसी प्रकार सन् 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी यहां गुप्त रूप से साधनाएं एवं यज्ञ कराए गए थे। मां बगलामुखी ने देश की रक्षा की है। सन् 2000 में कारगिल में भारत-पाकिस्तान के बीच पुनः युद्ध हुआ, जिससे दुश्मनों को मुंह की खानी पड़ी। “कुछ लोग बताते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कहने पर देश के कुछ गुप्त साधकों ने यहां मां बगलामुखी का यज्ञ कराया था।”
राजसत्ता का दरबार : मां पीतांबरा को राजसत्ता प्राप्ति और शत्रु नाश की अधिष्ठात्री देवी माना गया है। इसी रूप में भक्त उनकी आराधना करते हैं। राजसत्ता की कामना रखने वाले भक्त यहां आकर गुप्त पूजा अर्चना करते हैं। शायद इसीलिए यहां देश के बड़े नेताओं का आवागमन होता है। राजसत्ता के इसी संदर्भ में भी मां पीतांबरा की पूजा का विशेष महत्व होता है।
कुछ दतिया के बारे में…..
यह पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व का शहर है। दतिया का नाम क्षेत्र के पौराणिक राक्षस शासक वक्रदंत के नाम पर पड़ा है। राज्य की स्थापना 1549 में हुई थी। राव भगवान राव, दतिया के प्रथम राव और बरौनी (1626 – 1656) ने 1626 में अपने पिता ओरछा के राजा बीर सिंह देव से दतिया और बरौनी को प्राप्त कर, अपना राज्य स्थापित किया।
राजगढ़ महल और संग्रहालय :
जगढ़ पैलेस भी प्रमुख पर्यटन स्थल है। इतिहास के अनुसार राजगढ़ महल का निर्माण नरेश शुभकरण, इंद्रजीत व शत्रुजीत सिंह के शासनकाल में हुआ था। 350 वर्ष पुराना यह महल आज भी अपनी सुंदरता और भव्यता के कारण पूरे देश विदेश के पर्यटकों को काफी लुभाता है। बुंदेली भवन निर्माण शैली में बने इस महल में ही एक संग्रहालय भी है, जहां भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्व की अनेक वस्तुओं का संग्रह रखा गया है। लेकिन आजकल इसकी नियमित रूप से देखरेख नहीं की जा रही है।
छतरियां :
शहर में करण सागर के पास राजसी छतरियां बनी हैं। दतिया के राजवंश परिवारों ने अपने पूर्वजों की स्मृति में इन छतरियों का निर्माण कराया था। इन्हें पवित्र शास्त्रों की कहानियों, मिथकों और किंवदंतियों के साथ विस्तृत स्मारकों से सजाया गया है, उनके स्मरणीय महान कार्यों का भी वर्णन है। छतरियों का एक विशाल संकुल, पर्यटकों की यात्रा को वास्तव में और रोचक बना देता है।
दतिया के तत्कालीन नरेश शुभकरण के शासन काल में इन छतरियों का निर्माण सत्रहवीं शताब्दी के अंत में बताया जाता है। करन सागर तालाब के किनारे स्थित चार सौ साल पुरानी छतरियों में भित्ति चित्रों के माध्यम से दतिया के इतिहास, रियासतकाल के वैभव, युद्धकला और परंपराओं आदि को दर्शाया गया है। राज्य पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित लेकिन इन छतरियों की सही देखभाल नहीं होती है। यहां पर पर्यटन विभाग द्वारा एक चौकीदार नियुक्त किया गया है। Photo
वीर सिंह पैलेस या सतखंडा महल:
सतखंडा महल के नाम से प्रसिद्ध दतिया का वीर सिंह पैलेस पर्यटकों के लिए हमेशा ही आकर्षण का केंद्र रहा है। शहर के पश्चिमी किनारे पर एक अलग चट्टान पर स्थित यह ऐतिहासिक महल इतिहास में हुए अनेक परिवर्तनों का साक्षी रहा है। तत्कालीन महाराजा वीर सिंह जूदेव ने 1614 में इस इमारत को केवल पत्थरों और ईटों का इस्तेमाल कर बनावाया था। प्राचीन कला के वास्तुकारों के अनुसार, इसे बनाने में सीमेंट का उपयोग नहीं किया गया है बल्कि दाल, गुड़ और तेल के प्राचीन मिश्रण से इस किले का निर्माण किया गया था। इसमें खूबसूरत महल और उद्यान हैं
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गोविन्द महल
इसे देश में बुंदेली वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण माना जाता है और बेहतरीन इमारतों में इसकी गणना की जाती है। महल में आकर्षक भित्तिचित्र बने हुए हैं। महल में कुछ सुंदर मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं और महल के ऊपरी मंजिल से आसपास के क्षेत्र का सुंदर नजारा देखा जा सकता है। आज इस इमारत में कई जगह पर दरारें आ चुकी हैं। हालांकि कुछ साल पहले इसकी मरम्मत का कार्य किया गया था, लेकिन यह भी पूरा नहीं हो सका है।
सोनागिरि :
शहर से लगभग 15 कि.मी. पर सोनागिरि की पहाड़ी पर, प्रसिद्ध जैन तीर्थ मुख्य है। जैन संस्कृति के प्रतीक इस तीर्थ स्थल को प्रकृति ने अपनी भरपूर छटा से संवारा, इतिहास ने स्तुत्य गौरव प्रदान किया और अध्यात्म ने इसे तपोभूमि बनाकर निर्वाण का सिद्ध क्षेत्र बनाया है। यह तीर्थ ऊंची पहाड़ियों पर स्थित हैं और इसके आस-पास अनेक प्रकार के औषधीय पेड़ पौधों के साथ पहाड़ी पर बड़ी संख्या में बादाम के पेड़ भी लगाए गए हैं। इन खूबसूरत मंदिरों में पूजा अर्चना करने के लिए प्रति वर्ष बड़ी संख्या में जैन धर्मावलम्बी भक्तगण आते हैं। इनके अलावा इन मंदिरों के दर्शन हेतु अन्य धर्मावलम्बी पर्यटक भी आते हैं। सोनगिरि पहाड़ी पर 61 जैन मंदिर है। सबसे ऊपर की पहाड़ी पर 59 नंबर का मंदिर मुख्य है।
सोनगिरि पहाड़ी का एक विहंगम दृश्य
हम भी इस प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थल के दर्शन करने पहुंचे और चढ़ाने के लिए प्रशाद लिया तो देख कर अटपटा सा लगा, एक सूखा नारियल और सूखे चावल साथ में पांच सात फूल। अप्रैल की गर्मी से आसपास का सारा माहौल बहुत ही गर्म था। यहां ऊपर जाने वाली सीढि़यां सीमेंट से पक्की बनाई गई हैं और एकदम खुली भी हैं। इसलिए तेज धूप के कारण वह भी तप रही थीं। इतनी तेज धूप में मेरे लिए सीढि़यों पर नंगे पांव चलना दूभर हो रहा था। कई दिनों से पैरों में भी बहुत दर्द हो रहा था, जैसे तैसे चल ही रहा था।
कोरोना के कारण सभी मंदिरों पर ताले लगे हुए थे। केवल बाहर जाली में से ही दर्शन कर सकते थे। यहां के दो मंदिरों पर अपने क्षेत्र के पुराने परिचित लोगों के नाम और पते देख कर मन कुछ उत्साहित भी हुआ और सोचने लगा कि इन लोगों ने कभी बताया ही नहीं। पसीने से तर जैसे तैसे चल रहा था, कहीं बैठने की भी व्यवस्था नहीं थी। एक स्थान पर पेड़ के नीचे बैठने लगा कि एक बूढी अम्मा ने, जो ऊपर से वापस आ रही थी, कहा ‘थोड़ा सा कष्ट करो और 36 वें मंदिर तक पहुंच जाओ, फिर देखना।’ बस बैठने की बजाय फिर चलने लगा और जैसे तैसे 36वें मंदिर के पास आते ही, ठंडी हवा की लहरों ने तरोताजा कर दिया और सच में न जाने कौन सा चमत्कार हुआ कि पैरों का दर्द धीरे धीरे कम होने लगा। एक नई स्फूर्ति सी आ गई और चढ़ते ही चले गए। बस फिर क्या था ? शिलाओं को पार करते हुए 40 से 58 मंदिर देखते हुए, आराम से 59वें मंदिर में आ पहुंचे। वहां बैठे पुजारी जी ने बताया कि अपने साथ लाए प्रशाद में से नारियल और फूल भगवान के सामने रख दें और अन्य मूर्तियों के सामने (जाली लगे पात्रों में) थोड़ा – थोड़ा चावल अर्पित कर दें। अब पुजारी जी से चर्चा करने बैठे (इस एकांत में शायद वह भी बात करना चाहते थे) तो उन्होंने एक सेवक से पानी मंगवाया। पीपल के पेड़ के नीचे बने थड़े पर रखे मटके का, इतना ठंडा पानी, पीकर जैसे थकान दूर होने लगी। उन्होंने बताया कि यह चावल के दाने पक्षियों के लिए रख दिए जाते हैं। फिर भी जो बच जाएं उन्हें पेड़ पौधों के नीचे डाल देते हैं। अंत में नीचे आने पर मुख्य द्वार से पहले प्रशाद लिया तो और भी आश्चर्य हुआ, घर ले जाने वाले प्रशाद में सफेद रंग की मीठी भुजिया और उसमें कुछ बादाम थे। ज्ञात हुआ कि यह भुजिया पनीर से बनी है। कार्यालय के बाहर विश्राम स्थल पर कुछ देर बैठे, एक सज्जन ने बताया कि आश्रम में 50 से अधिक गायें हैं, जिनका दूध बेचा नहीं जाता और आश्रम तथा मंदिर के लिए ही उपयोग किया जाता है। उसी पनीर से यह प्रशाद बनाया जाता है। आगे चर्चा करते समय उन्होंने बताया कि सोनागिरि जैसे अनोखे इस स्थान को ‘छोटा सम्मेद शिखर जी’ भी कहते है। पुरातत्वविदों ने सचित्र प्रमाणों के आधार पर इस क्षेत्र को ईसा पूर्व की तीसरी शताब्दी का सिद्ध किया है। इसका प्राचीन नाम ‘श्रमणगिरि’ और ‘श्रमणांचल’ रहा था, कालांतर में यह ‘स्वर्णगिरि’ हो गया। आजकल लोग सोनगिरी या सोनागिरी नाम ही जानते हैं। |
वर्तमान में यह मन्दिर ‘श्री दिगंबर जैन स्वर्ण मन्दिर’ के नाम से अधिक लोकप्रिय है, इसका मुख्य कारण इस मन्दिर के विभिन्न कक्षों की आंतरिक दीवारों पर विविध रंगों से सुन्दर एवं नयनाभिराम चित्रकारी जिनमें स्वर्ण रंग की अधिकता है, इसी कारण इसे स्वर्ण मन्दिर भी कहा जाता है।
मन्दिर जी में बहुरंगीय अलंकरण अभिप्रायों तथा विविध आकार वाले माणिकों, दर्पणों एवं बहुत बारीक स्वर्ण कलाकृतियों से एवं जैन धर्म से सम्बंधित विविध कथानको एवं तीर्थ क्षेत्रों को संपूर्णता में प्रस्तुत करने के सुन्दर प्रयास सहित एक सुशोभित विशाल बरामदा है। इसे स्वाध्याय कक्ष या सरस्वती कक्ष अथवा सभामंडप भी कहा जाता है । मन्दिर के विशाल बरामदे में चारों ओर बलुए पाषाण से बने स्तंभों एवं दीवारों फूल-पत्तियों की सुन्दर नक्काशी की गई है। वातावरण इतना रमणीक है कि यहां पहुंचने वाला प्रत्येक जन भाव-विभोर हो जाता है।
मंदिर खुलने का समय : मंदिर के खुलने का समय सुबह चार बजे है। सुबह से ही सभी जैन मुनि अपनी साधना में लीन हो जाते है और देर रात तक यह साधना चलती रहती है। यहां आने वाले व्यक्तियों को किसी भी प्रकार का कोई शोर करने तथा जैन मुनियों की फोटो लेने की अनुमति नहीं दी जाती है।
पर्व : यहां स्वामी महावीर जी की जयंती बहुत ही धूम धाम से मनाई जाती है। इस दिन यहां होने वाली रथ यात्रा को देखने के लिए बहुत से लोग आते है। महावीर जयंती के दिन दिगंबर जैन एवं श्वेतांबर जैन के जैन मुनि 24 जैन तीर्थंकरों की रथ यात्रा में शामिल होकर इस यात्रा को और भी भव्य बनाते है। इसी कारण इस दिन यहां दूर दूर से लोग इस खुबसूरत यात्रा को देखने और इस यात्रा का हिस्सा बनने के लिए आते हैं।
कहां ठहरें : यदि आप सोनगिरी में एक दो दिन रुकना चाहते है तो यहां एक धर्मशाला है। इसके अलावा शहर में कई होटल तथा जैन समाज की कई धर्मशालाएं स्थित हैं, जिनमें आपको सभी प्रकार की सुविधा प्रदान की जाती है। सोनागीर दतिया से सड़क और रेल मार्ग से जुड़ा हुआ है। |
उनाओ का सूर्य मंदिर :
दतिया शहर से लगभग 22 कि.मी. दूर, उनाओ का सूर्य मंदिर अपनी खूबसूरती के लिए मध्यप्रदेश में प्रसिद्ध है। यह एक प्राचीन मन्दिर है और कहा जाता है कि यह प्रागैतिहासिक काल से मौजूद है। सूर्य मंदिर को दूसरे राज्यों से भी लोग तीर्थयात्रा की तरह स्वीकार करते हैं। इस स्थान को “बालाजी धाम” के नाम से भी जाना जाता है।
मंदिर के ठीक सामने की तरफ पहुज नामक नदी है। इसकी एक धारा मंदिर के प्रवेश द्वार की ओर आकर, एक तालाब का रूप ले लेती है। मान्यता है कि इसके पवित्र जल में स्नान करने से कुष्ठ रोगी ठीक हो जाते हैं। बाहर से आने वाले तीर्थयात्री, मंदिर में प्रवेश करने से पहले यहां एक डुबकी लगा कर, इसी जल से सूर्यदेव का जलाभिषेक करते हैं।
उनाओ बालाजी सूर्य मंदिर अपने साथ कई किवदंतियां समेटे हुए है। कहा जाता है कि काछी समाज के एक व्यक्ति के पास एक बहुत अद्भूत प्यारी गाय थी। वह गाय प्रतिदिन गांव से निकल कर एक पहाड़ी तक जाकर वापस आ जाती थी। काछी ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया था। एक दिन गाय वापस नहीं आई, वह उसे ढूंढने निकला। इस क्षेत्र में पहले ऐसे लोग रहते थे जो गायों को मार कर खाल आदि बेचने का काम करते थे। दो दिन बाद भी जब गाय नहीं मिली तो गाय के मालिक को बहुत दुख हुआ और उसने सोचा कि उन लोगों ने गाय को मार दिया है। तब एक बालक ने बताया कि एक दिन वह उसके पीछे गया था और देखा कि गाय ने एक पत्थर पर दूध की धार छोड़ी और वापस आ गई। उसी दिन, उनाओ से दस मील दूर पर दतिया के राजा नरेश राव को दोपहर में आराम करते हुए इस घटना का सपना आया। उस सपने में एक साधु बाबा ने उन्हें गाय का उचित क्रियाक्रम करने को कहा। राजा बहुत दुखी मन से वहां पहुंचे और गाय की अस्थियां खोजने के प्रयास में, वहां पड़े सफेद पत्थर के आसपास खुदाई शुरू की गई। खुदाई के दौरान उस स्थान से सूर्य देवता की एक सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई। राजा ने उस स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया, वही मंदिर आज बालाजी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। राजा के द्वारा इस मंदिर की देखरेख व पूजा अर्चना का दायित्व गाय के मालिक को ही दे दिया गया। यह भारत का एक मात्र मंदिर है, जिसमें मंदिर के रख रखाव व पूजा आदि की व्यवस्था काछी समाज के व्यक्तियों द्वारा ही जा रही है।
मंदिर परिसर : सुरभ्य पहाड़ी पर स्थित होने के कारण सूर्योदय की पहली किरण सीधे मंदिर के गर्भगृह में स्थित सूर्य की मूर्ति पर पड़ती है। सूर्य देव की प्रतिमा काली ईंटो के समतल मंच पर ढकी हुई स्थापित है और उसमें केवल उनका मुख ही दिखाई देता है। इस प्रतिमा में 21 त्रिभुज सूर्य के 21 चरणों को प्रदर्शित करते है। कहा जाता है कि यह मंदिर भारत का एक अकेला ऐसा मंदिर है जहां पर सूर्य-यंत्र स्थापित किया गया है। यहां प्रत्येक रविवार को विशेष अर्चना- आराधना के लिए मेला लगता है। सूर्य देवता के दर्शन के लिए दूर दूर से बड़ी संख्या में भक्त आते है। यहां प्रत्येक आषाढ़ शुल्क एकादशी को रथयात्रा का आयोजन किया जाता है। मंदिर परिसर में सूर्य देवता के अलावा भी कई छोटे मंदिर है, पर सूर्य देव का मंदिर ही प्रमुख है।
घी के कुएं : इस मंदिर का निर्माण 16 वीं शताब्दी में कराया गया था और तब से ही यहां पर एक अखण्ड ज्योति आज भी निरंतर प्रज्वलित है। ऐसा माना जाता है कि यह ज्योति लगभग 400 वर्षों से लगातार जल रही है। इस अखंड ज्योति को प्रज्वलित रखने के लिए प्रतिदिन आठ किलो शुद्ध (देसी) घी लग जाता है। भक्तगण इस ज्योति को प्रज्वलित रखने के लिए घी अर्पित करते हैं। मंदिर समिति के अनुसार भक्तों के द्वारा प्रतिदिन लगभग 12 किलो घी चढ़ावे में आता है। रविवार को इसकी मात्रा बढ़ जाती है। इस प्रकार उपयोग के बाद भी प्रतिदिन घी शेष रह जाता है और इस शेष घी को एकत्रित कर लिया जाता है।
विगत कई दशकों से आने वाले श्रद्धालु भक्तों के द्वारा यहां इतना घी चढ़ाया गया है कि घी को रखने हेतु कुओं का निर्माण करवाना पड़ा और वह भी एक या दो नहीं बल्कि पूरे नौ।
यहां मकर संक्रांति, बंसत पंचमी, रंग पंचमी और डोल ग्यारस के अवसरों पर चढ़ावे में क्विंटल तक शुद्ध घी आ जाता है।
मंदिर के पुजारी रामाधार ने हमें बताया कि मान्यता हैं कि घी के चढ़ावे में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करने पर शाप लगता है और कुष्ठ और चर्म रोग आदि बीमारियां हो सकती हैं। अतः मंदिर में चढ़ाए गए घी में किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं होती। इस घी को इकट्ठा करने के लिए पहले एक कुआं बनवाया गया, जब वह भर गया तो दूसरा और इस तरह धीरे धीरे पूरे नौ कुएं भर गए हैं।
मंदिर पहुंचने का साधन :
दतिया से सरकारी बस या ऑटो से उनाओ जा सकते है। यहां मध्यप्रदेश के साथ साथ उत्तरप्रदेश के श्रृद्धालुओं, पर्यटकों और विशिष्ट व्यक्तियों का भी आगमन होता है। लेकिन ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं है, नतीजतन दर्शनार्थियों यात्रियों को शाम से पहले ही वापसी करनी होती है। अभी तक सूर्य मंदिर के आसपास सुविधाओं के विस्तार के संबंध में प्रशासन द्वारा कोई कारगर पहल नही की जा सकी है।
कैसे पहुंचें : हवाई मार्ग : दतिया के लिए निकटतम हवाई अड्डा ग्वालियर एयरपोर्ट है, जो यहां से लगभग 70 कि.मी. की दूरी पर है।
रेल मार्ग : नियमित ट्रेनों के माध्यम से दतिया देश के अन्य प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। यहां दतिया और सोनागिरि दो रेलवे स्टेशन हैं। |