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मोदी की पार्टी भाजपा की पूरे भारत में सत्ता नहीं है।

लेकिन फिर भी वह इस ओर प्रयास करते हुए काम कर रहे हैं।

* हरि कुमार द्वारा

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विपक्ष के कब्जे वाले राज्यों के बीच राजनीतिक संघर्ष उस संघीय फॉर्मूले पर दबाव डाल रही है जो भारत को एक साथ रखता है।

यह दशकों में भारत के सबसे शक्तिशाली नेता के लिए अंतिम सीमा है।

प्रधान मंत्री के रूप में अपने 10 वर्षों में, नरेंद्र मोदी ने 140 करोड़ से अधिक  लोगों आबादी को एक जटिल और विविधतापूर्ण देश के रूप में अपनी व्यापक हिंदू राष्ट्रवादी दृष्टि के प्रभुत्व वाले एक अखंड देश में बदलना अपना मिशन बना लिया है।

देश में सुनने में आया है कि समाचार मीडिया, राष्ट्रीय विधायिका, नागरिक समाज और सुनते हैं कि कभी-कभी अदालतें भी – सभी काफी हद तक उनके काम और विकास से काफी प्रभावित हैं। लेकिन प्रतिरोध का एक महत्वपूर्ण समूह अभी भी बना हुआ है। इसमें भारत के कुछ विकसित राज्य भी हैं, जो इसके तीव्र विकास में प्रतिभागी इंजन हैं।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का भविष्य का आकार – और इसकी आर्थिक गति – आगामी सत्ता संघर्ष पर निर्भर हो सकती है।

श्री मोदी, जो 19 अप्रैल से शुरू होने वाले राष्ट्रीय चुनाव में तीसरा कार्यकाल जीतने के लिए अच्छी स्थिति में हैं और उन राज्यों की सरकारों को बाहर करने के लिए सतत प्रयास कर रहे हैं, जहां उनकी पार्टी का नियंत्रण नहीं है। जिसे उनके विरोधी उन राज्यों की सरकारों को सत्‍ता से हटाने का अनुचित प्रयास बता रहे हैं।

वह श्री मोदी के प्रशासन पर प्रमुख परियोजनाओं के लिए केन्‍द्र सरकार द्वारा दिए जाने वले अनुदान/ धन में देरी करने का आरोप लगा रहे हैं। साथ ही प्रधानमंत्री की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होने वाले किसी भी व्यक्ति को बचाते हुए, विपक्षी नेताओं को जेल में डालने, बुनियादी सेवाएं नि:शुल्‍क उपलब्‍ध कराने में बाधा डालने और राज्य की राजनीति को अराजकता पैदा करने के भी आरोप लगा रहे हैं।

उनका कहना है कि  यह तनाव भारत के सत्ता साझेदारी और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के उस नाजुक संघीय फॉर्मूले को तोड़ रहा है, जो देश को राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों में एक साथ रखता है।

कुछ क्षेत्रीय नेता रात-दिन केंद्र सरकार के व्यवहार को एक ऐसे औपनिवेशिक अधिपति के रूप में वर्णित करते नहीं थकते, जो संयुक्त राज्य अमेरिका जैसी संघीय प्रणालियों की तुलना में अधिक शक्ति रखता है। भारत के सबसे विकसित और नवोन्वेषी हिस्से, दक्षिण में, कुछ नेता “अन्याय के पैटर्न” जारी रहने पर अपने क्षेत्र के लिए “अलग राष्ट्र” की बात करने लगे हैं।

पश्चिम बंगाल राज्य की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस पार्टी की नेता ममता बनर्जी के लिए इस महीने कोलकाता में एक रैली की थी, जिसमें उसने मोदी और उनके लेफ्टिनेंटों ने राज्य के नेताओं पर “अलगाववादी मानसिकता” रखने और ऐसी राजनीति करने का आरोप लगाया, जो “देश को तोड़ सकती है।”

विश्लेषकों का कहना है कि अधिक केन्‍द्रीयकृत शासन की ओर भारत का कदम इसके समग्र विकास को नुकसान पहुंचा सकता है, क्योंकि ऐसे प्रयास अतीत में भी हुए हैं। बड़े राष्ट्रीय व्यय कार्यक्रम बुनियादी विकास समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिन्हें दक्षिण ने ज्यादातर दशकों पहले हल कर लिया था। यदि उस क्षेत्र की अपनी आवश्यकताओं के आधार पर निवेश करने की स्वतंत्रता प्रतिबंधित है, तो प्रभाव दूरगामी हो सकते हैं।

दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की सरकार में कैबिनेट मंत्री पी. त्यागराजन इसे, ‘अंततः आत्म-विनाशकारी’ कह रहे हैं। उनका मानना है कि श्री मोदी एक सरल समाधान पेश करते हैं अर्थात अन्य शासित राज्यों के दलों द्वारा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ आना।

 

अपनी बात कहने के लिए वह अक्सर ऑटोमोटिव शब्दावली का सहारा लेते हैं। उनका कहना है कि उन राज्यों को “डबल इंजन” सरकार से लाभ हो सकता है, जिसमें एक पार्टी – उनकी अपनी – राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर समन्वय के साथ काम कर रही है। कुछ क्षेत्रीय नेताओं के उनके साथ सहयोग किया भी है।

लेकिन कुछ का कहना है कि यदि वे अनुपालन नहीं करते हैं, तो केन्‍द्र राज्य सरकारों के कार्यों में बाधाएं डालता रहेगा, जिससे उनके लिए चुनावी वादों को पूरा करना मुश्किल हो जाएगा।

इसमें कोई  दो राय नहीं हो है कि भाजपा लगातार अपना आधार बढ़ा रही है और इंतजार कर रही है।

पिछले महीने, अन्‍य दलों द्वारा नियंत्रित लगभग आधा दर्जन राज्यों के  मुख्यमंत्रियों तथा मंत्रियों ने नई दिल्ली में केन्‍द्र की संघीय सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था।  परन्‍तु ऐसा लगा जैसेकि वह एक नाटकीय प्रदर्शन ज्‍यादा लगता था क्योंकि वह अपने पीछे “हमारा खून, हमारा पसीना, हमारा कर” जैसे नारे लिखे पोस्टर लटकाए हुए थे और उनके भाषण भी कुछ प्रभावशली नहीं थे और घुमा फिरा कर मोदी मोदी करते हुए शिकायत कर रहे थे कि श्री मोदी अपनी पार्टी को मजबूत करने और अपनी राज्य सरकारों को परेशान करने के लिए भारत भर में एकत्रित राजस्व के वितरण पर अपना नियंत्रण रखे हुए है। XXX

वहीं, चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले पिछले सप्ताह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी हैदराबाद में बोल रहे थे। उन्होंने विपक्षी राज्यों में, बुनियादी संरचना और कल्याण परियोजनाओं में अरबों रूपए के वादों को स्थानीय पार्टियों की तीखी आलोचना के साथ जोड़ दिया। उन्होंने उनकी काफी तीखी आलोचना करते हुए कहा कि कुछ राज्‍य नई दिल्ली द्वारा नियुक्त राज्य के राज्यपालों का (जो मुख्य रूप से औपचारिक सांविधानिक भूमिका निभाते हैं) अपमान करने, उनसे औपचारिक स्‍वीकृति नहीं लेने, उन पर मुकदमा दायर करने की धमकियां देने और निर्वाचित सरकारों के काम को रोकने  जैसे अनावश्‍यक आरोप लगाते हैं। राज्यपालों द्वारा विचार विमर्श हेतु की गई टिप्‍पणियों (पूछताछ) को अदालतों में ले जाते हैं।

विपक्ष के नियंत्रण वाले राज्य पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश दिल्‍ली में राज्यपाल तथा उपराज्‍यपाल पर विधायी कार्य को रोकने के आरोप लगा कर मामलों को बार-बार उच्‍चतम न्‍यायालय में ले जाने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ को कहना पड़ा कि “आप आग से खेल रहे हैं।” “क्या इस तरह हम संसदीय लोकतंत्र बने रहेंगे?”

इसी तरह तमिलनाडु में, प्राधिकारियों ने कहा कि वे राजधानी चेन्नई में मेट्रो लाइन का विस्तार करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि नई दिल्ली में मोदी का प्रशासन वित्त पोषण के हिस्से पर अपने हाथ खींच रहा था।

भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट पर स्थित केरल में, राज्य सरकार मोदी प्रशासन पर इस बात को लेकर मुकदमा कर रही है कि वह मनमाने ढंग से उधार लेने की सीमा तय कर रही है, जिसने राज्य के बजट को अस्त-व्यस्त कर दिया है और भुगतान में देरी की है।

महाराष्ट्र में, जहां भारत की वित्तीय और मनोरंजन राजधानी मुंबई है, श्री मोदी के अधिकारियों ने जांच एजेंसियों के दबाव और प्रोत्साहन की पेशकश के माध्यम से राज्य की दो सबसे बड़ी पार्टियों को विभाजित कर दिया है। इस तरह की “तोड़ो और हड़पो” की राजनीति, जैसा कि आलोचकों ने इसे ब्रांड किया है, ने भाजपा के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। जबकि इसमें कोई शक नहीं है कि गठबंधन सरकार में किंगमेकर के रूप में उभरना चाहता है।

ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि दिल्ली राजधानी क्षेत्र में भाजपा वह उस छोटी पार्टी को नष्ट करने पर तुली हुई है जो बुनियादी सेवाएं निशुल्‍क उपलब्‍ध कराने का वादा करके सत्ता में आई थी। विपक्षी नेताओं का कहना है कि क्षेत्र की चुनी हुई सरकार से महत्वपूर्ण शक्तियां छीन ली गई हैं और संघीय एजेंसियों ने आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में फंसा दिया है। जबकि वे यह बात नहीं करते कि उच्‍च न्‍यायालय ने भ्रष्‍टाचार के सबूतों के आधार पर उनके नेताओं को जमानत या अग्रिम जमानत देने तक से मना कर दिया है।

पार्टी के उपनेता और एक प्रमुख कैबिनेट मंत्री एक साल से अधिक समय से जेल में हैं। गुरुवार को, एक नाटकीय रात की छापेमारी में, सरकारी एजेंटों ने पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री को भी गिरफ्तार कर लिया, जिन पर उन्होंने वित्तीय अपराधों का आरोप लगाया है। वह गिरफ्तार होने वाले पहले मुख्यमंत्री हैं।

दिल्ली में कड़वा राजनीतिक विवाद शहर के कुछ हिस्सों में सीवेज के बहाव और सरकारी अस्पतालों के बाहर लंबी लाइनों से स्पष्ट है।

आम आदमी ने रोगी डेटा दर्ज करने के लिए बाहरी ठेकेदारों पर भरोसा करके अस्पतालों में सुधार करने की मांग की। लेकिन यह योजना केन्‍द्र सरकार के अधिकारियों और क्षेत्र की चुनी हुई सरकार के बीच टकराव में फंस गई है और महीनों तक वेतन में देरी के बाद ठेकेदारों ने अपने कर्मचारियों को कई अस्पतालों से हटा लिया है। संघीय और क्षेत्रीय सरकारों के बीच तनाव के कारण दिल्ली सरकार के अस्पतालों में लंबी लाइनें लग गई हैं।

दिल्ली में आम आदमी के पदाधिकारी सौरभ भारद्वाज ने कहा कि श्री मोदी का इरादा स्पष्ट है, देश को एक दलीय शासन की ओर ले जाना। उन्‍होंने आगे कहा कि केन्‍द्र ने राज्य सरकार का काम इतना कम कर दिया कि लोग कहने लगे कि भाजपा को लाना बेहतर है और केवल वह ही अच्‍छे परिणाम दे सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि संघीय तंत्र ही ढह जाएगा।

सबसे बड़ी संघीय-राज्य दोष रेखा अधिक समृद्ध दक्षिण को उत्तर में श्री मोदी के समर्थन आधार के विरुद्ध खड़ा करती है।

कर्नाटक राज्य में एक संक्षिप्त अवधि को छोड़कर जब भाजपा. दल-बदल करवाकर नियंत्रण हासिल करने के बाद भी पार्टी दक्षिण के पांच राज्यों में सत्ता हासिल करने में असमर्थ रही है।

वहां के प्राधिकारियों का कहना है कि श्री मोदी उनकी राजनीति के ब्रांड को स्वीकार करने से इनकार करने के लिए उन्हें रोकने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें उनकी पार्टी द्वारा हिंदू-मुस्लिम तनाव पैदा करना और हिंदी (जो कि दक्षिण में व्यापक रूप से नहीं बोली जाती है) एक राष्ट्रभाषा.बनाने पर जोर देना शामिल है।

नाराजगी इस शिकायत से बढ़ गई है कि दक्षिण को नई दिल्ली को भेजे जाने वाले कर के बदले में आनुपातिक रूप से कम मिलता है। चूँकि उत्तरी राज्यों की आबादी बड़ी है और वे बुनियादी विकास में बहुत पीछे हैं, इसलिए उन्हें राजस्व का बड़ा हिस्सा मिलता है।

दक्षिण में इस बात को लेकर भी गंभीर चिंताएं हैं कि लंबे समय से राष्ट्रीय जनगणना विलंबित होने के बाद संसदीय सीटों का पुनर्निधारण दक्षिण को जन्म दर कम करने में उसकी सफलता के लिए एक तरह से सजा देना है, जो उसकी सापेक्ष समृद्धि की कुंजी है।

बुनियादी संरचना, शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य में अपने पहले के निवेश के साथ – दक्षिण में राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मतभेदों के अनूठे मिश्रण का परिणाम – यह क्षेत्र उच्च-स्तरीय विनिर्माण के लिए भारत की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाने के लिए बेहतर स्थिति में है। उनके विरोधियों का कहना है कि श्री मोदी का राजनीति-प्रेरित दृष्टिकोण, भारत को एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बनाने की उनकी महत्वाकांक्षाओं को कम कर सकता है।

जबकि केन्‍द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उन दावों को खारिज कर दिया कि राजस्व को गलत तरीके से वितरित किया जा रहा था, उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार राज्यों का हिस्सा “जारी कर रही थी, और समय पर जारी कर रही थी”। लेकिन उन्‍हें सही उपयोगिता-प्रमाणपत्र देना चाहिए।

 

नई दिल्ली में राज्य के नेताओं के विरोध प्रदर्शन के बाद श्री मोदी ने खुद को “प्रतिस्पर्धी, सहकारी संघवाद” का प्रबल समर्थक बताया संसद में कहा, “हम चाहते हैं कि देश का हर हिस्सा समृद्ध हो।”

विश्लेषकों का कहना है कि राज्य सरकारों पर दबाव डालकर, श्री मोदी भारत के संविधान में संरचनात्मक खामियों का फायदा उठा रहे हैं, जिसने 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद एक गणतंत्र (राज्यों का एक अर्ध-संघीय संघ) बनाया था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, जिसने आज़ादी के बाद पहले दशकों में भारत पर निर्विरोध शासन किया, ने प्रतिस्पर्धियों की बढ़त को रोकने के लिए राजकोषीय मामलों पर केंद्र सरकार को दी गई बड़ी संवैधानिक शक्तियों का दुरुपयोग किया।

हालाँकि, 1980 के दशक के अंत में कांग्रेस के पतन के साथ गठबंधन राजनीति के युग की शुरुआत हुई, जिसमें क्षेत्रीय दलों को नई दिल्ली में प्रतिनिधित्व मिलने लगा।

यही वह समय था जब भारत ने अपनी भारी केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था को मुक्त बाजार के लिए खोल दिया था। जैसे-जैसे विकास हुआ, संसाधनों का वितरण केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अधिक दबाव और खींचतान होने लगी।

मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के सहायक प्रोफेसर ए.कलैयारासन ने कहा, क्षेत्रीय शक्तियों के उद्भव ने केंद्र को कुछ सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध बना दिया है।  1990 का दशक संघवाद का स्वर्णिम काल था। आज, श्री मोदी अपने “डबल इंजन” प्रयास से भारतीय संघवाद का पुनर्निर्माण करना चाह रहे हैं।

विपक्ष के कब्जे वाले राज्यों में, श्री मोदी ने खुद को भारत के विकास और प्रगति के एकमात्र चालक के रूप में पेश करने के लिए, अपने नाम या अपने कार्यालय के नाम से ब्रांडेड बुनियादी संरचना और कल्याण परियोजनाओं की पेशकश की है।

संयुक्त परियोजनाओं में शामिल होने में, राज्य दलों को राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ती है: उन्हें पैसा तभी मिलेगा जब वे मोदी ब्रांडिंग के लिए सहमत होंगे। ***

द’ न्‍यूयार्क टाइम्‍स से साभार हरि कुमार द्वारा नई दिल्ली से रिपोर्ट। यह लेखक के अपने विचार है। सबका अतुल्‍य भारत. कॉम इनके लिए उत्‍तरदायी नही है।

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