*अनिरुद्ध सिंह
स्मेडली डी. बटलर (युद्ध विरोधी एक विचारक) ने एक पत्रिका में लिखा है कि युद्ध एक रैकेट या ठगविद्या है जिसमें कुछ लोग लाभ उठाते हैं और ज्यदातर लोग भुगतान करते हैं। यह हमेशा से रहा है.. क्या इसे रोकने कोई तरीका है। आप इसे निरस्त्रीकरण सम्मेलनों द्वारा समाप्त नहीं कर सकते। आप इसे जिनेवा में शांति वार्ता से ख़त्म नहीं कर सकते। अच्छे इरादे वाले अव्यावहारिक समूह इसे संकल्पों से मिटा नहीं सकते। युद्ध से होने वाले लाभ छीनकर ही इस रैकेट को प्रभावी ढंग से तोड़ा जा सकता है।
रूस – यूक्रेन युद्ध :
सबसे पहले हम रूस – यूक्रेन युद्ध की बात करते हैं। 24 फरवरी 2022 को रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया। यह आक्रमण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किसी यूरोपीय देश पर अब तक का सबसे बड़ा हमला माना गया है। यूक्रेन पर किए आक्रमण पर पहले तो मेरा विचार था कि संभवत: रूस अपने वह परमाणु अस्त्र वापस लेना चाहता है, जो रूस के विघटन से पहले यूक्रेन में भंडारित थे और जिन्हें यूक्रेन ने देने से मना कर दिया था।
सूचनाओं के अनुसार, जून 2022 तक रूसी सैनिकों ने यूक्रेनी क्षेत्र के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था। यूक्रेन ने मार्शल लॉ लगा कर सामान्य लामबंदी का आदेश दे दिया और रूस के साथ राजनयिक संबंध तोड़ दिए।
ऐसा अनुमान है कि इससे हजारों यूक्रेनी नागरिक और सैनिक हताहत हुए है। अप्रैल 2023 तक लगभग आठ मिलियन यूक्रेनी नागरिक आंतरिक रूप से विस्थापित हो गए थे और 8.2 मिलियन से अधिक लोग देश से भागने पर मजबूर हो गए थे, जिससे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप का सबसे बड़ा शरणार्थी संकट पैदा हो गया था। दोनों के बीच यह युद्ध अभी तक जारी है। युद्ध के कारण पर्यावरण की भारी और व्यापक रूप से हुई क्षति ने विश्व में खाद्य संकट में योगदान दिया है। (जिसे व्यापक रूप से पारिस्थितिक विनाश के रूप में वर्णित किया गया है)
एक आदमी बमबारी के बीच में जा रहा है
यूक्रेन 40 मिलियन से अधिक लोगों का गणतंत्र है और यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा देश है। फिर भी, मुख्य अंतर यह है कि यूक्रेन, (रूस के समान जनसंख्या होने के बावजूद), अंतर्राष्ट्रीय सहायता पर कई गुणा निर्भर करता है। प्राकृतिक संपदा की कमी के कारण यूक्रेन सुरक्षित रूप से स्थित एक प्रभावशाली कारखाना नहीं बना सका है। इसलिए यूक्रेन का सैन्य उद्योग रूस की तुलना में बहुत पीछे कहा जा सकता है।
फिर भी विशेषज्ञों को यकीन है कि अगर रूस कोशिश भी करे तो भी वह यूक्रेन पर नियंत्रण नहीं कर पाएगा। उधर यूक्रेन भी रूस को ऐसा विकल्प और अवसर नहीं देगा। अब रूस का लक्ष्य लैंडब्रिज को नष्ट करके क्रीमिया, ज़ापोरिज़िया और खेरसॉन ओब्लास्ट को मुख्य भूमि रूस से काटना है, इससे हवाई जहाजों और केर्च ब्रिज पर आपूर्ति सीमित हो जाएगी जिससे यूक्रेन के सहयोगियों द्वारा प्रदान किए गए सैन्य सामान और मिसाइलों के परिवहन में कठिनाई होगी।
कारण : अप्रैल 2014 से सितंबर 2022 तक, डोनेट्स्क पीपुल्स रिपब्लिक (डीपीआर) और लुहान्स्क पीपुल्स रिपब्लिक (एलपीआर) ने स्वतंत्र राज्य होने का दावा किया था। रूस ने उनकी संप्रभुता को मान्यता दी। दक्षिण ओस्सेटियन ने 2014 में, रूस और अब्खाज़ियन के अधिकारियों ने फरवरी 2022 में, सीरिया ने जून 2022 में और उत्तर कोरिया ने जुलाई 2022 में मान्यता दे दी थी और यही बात यूकेन को नागवार गुजर रही थी। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक बार विचार व्यक्त करते हुए यूक्रेन के अस्तित्व से इनकार कर दिया था। साथ ही, उन्होंने नाटो के विस्तार की आलोचना की और मांग की कि यूक्रेन को इस सैन्य गठबंधन में (कभी भी) शामिल होने से रोका जाना चाहिए।
ईरान – इराक़ युद्ध :
ईरान और इराक़ ने सन् 1980 से 88 तक के बीच युद्ध हुआ था। युद्ध का मुख्य कारण दोनों देशों के बीच सीमा-विवाद था क्योंकि 70 के दशक में ईरान के साथ सीमा विवाद को लेकर जो सन्धि हुई थी उससे इराक़ सन्तुष्ट नहीं था। वह ऐसा समय था, जब ईरान राजनैतिक रूप से कमज़ोर था क्योंकि देश में इस्लामिक क्रांति हुए कुछ ही समय हुआ था। कुल मिलाकर, ईरान-इराक युद्ध के दौरान लगभग पांच लाख से अधिक लोग मारे गए थे। इस युद्ध के दौरान, ईरान के नागरिक सबसे अधिक हताहत हुए थे। फिर भी, कोई परिणाम नहीं निकला और यह युद्ध अनिर्णीत ख़त्म हुआ था।
अज़रबैजान और अर्मेनिया युद्ध :
दिसंबर 2022 में अजरबैजान और आर्मेनिया के बीच अचानक हिंसा बढ़ गई क्योंकि अजरबैजान ने आर्मेनिया पर सैन्य आपूर्ति लाने के लिए लाचिन सड़क का उपयोग करने का आरोप लगा कर इस महत्वपूर्ण सड़क की नाकाबंदी कर दी। लाचिन कॉरिडोर बुनियादी खाद्य पदार्थों और दवाओं आदि की आपूर्ति के लिए एकमात्र प्रमुख मार्ग है जो आर्मेनिया गणराज्य को नागोर्नो-काराबाख से जोड़ता है। यह बात ऐसी बढ़ी कि अज़रबैजान और आर्मेनिया में युद्ध छिड़ गया। काराबाख अधिकारियों ने कहा कि युद्ध के पहले ही दिन कम से कम 200 लोग मारे गए हैं, जबकि अजरबैजान ने कहा कि उसके 192 सैनिक मारे गए हैं।
सोवियत संघ से अलग होने के बाद भी इन दोनों देशों के बीच जब-तब संघर्ष होता रहा है। 1922 में सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (यूएसएसआर) की स्थापना (1922-1991) के बाद, अज़रबैजान और अर्मेनियाई सोवियत संघ के घटक राज्य बन गए थे। शुरुआत में ट्रांस-केशियान के एक भाग के रूप में और 1936 से संघ के भीतर अलग-अलग संस्थाओं के रूप में, नागोर्नो-काराबाख ऑटोनॉमस ओब्लास्ट(*ओब्लास्ट एक प्रकार का प्रशासनिक तंत्र) सहित अज़रबैजानी और अर्मेनियाई अधिकारियों के बीच आम तौर पर शांतिपूर्ण संबंध थे। फिर भी, 1918 से 1920 तक दोनों देशों के बीच भी नागोर्नो-काराबाख को लेकर संघर्ष हो चुके थे। चूंकि अब सभी सोवियत का हिस्सा थे, फिर भी तनाव बना रहता था और दिसंबर 1947 में, आर्मेनिया और अज़रबैजान के कम्युनिस्ट नेताओं ने सर्वोच्च सोवियत नेता जोसेफ स्टालिन को एक संयुक्त पत्र लिख कर समाधान करने का अनुरोध किया था लेकिन उल्लेख किया गया है कि स्टालिन ने “हम सभी एक देश सोवियत संघ का हिस्सा हैं” कहकर सब को चुप करा दिया कि और परिणामस्वरूप कोई स्थायी समाधान नहीं हो पाया था।
अब प्रश्न उठता है कि क्या युद्ध ही एकमात्र विकल्प है, क्या यह समस्याएं आपस में बैठ कर, वार्ता के माध्यम से नहीं सुलझाई जा सकती थीं? आज दुनियां के लगभग सभी देश संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य हैं। उनके सभी प्रतिनिधि उच्च शिक्षाप्राप्त हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ में बैठ कर, दूसरे देशों के बीच होने वाली लड़ाई पर विश्व शांति की बातें करते हैं, उन्हे तत्काल युद्धविराम करने के प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं। लेकिन इन्हीं देशों का नेतृत्व उस समय यथार्थवादी क्यों नहीं हो पाता, जब अपने ही किसी पड़ौसी के साथ कोई समस्या खड़ी हो जाए, तो उसका समाधान बातचीत से क्यों नहीं हो सकता है?
यहां एक और प्रश्न आता है कि क्यों नहीं किया जा सकता? यदि वह चाहें तो भी नहीं कर सकते? आखिर क्यों? इसका उत्तर है कि यदि वह ऐसा करना भी चाहें तो भी नहीं कर सकते? क्योंकि उनके बीच हुए युद्ध से लाभ उठाने वाले भी वहीं मौजुद होते हैं।
विवेचना :
कहा जाता है कि 1970 के दशक तक विश्व में दो बड़ी संस्थाएं पर्दे के पीछे से पूरी दुनिया को नियंत्रित करने की कोशिश में रहती थीं, जिनके बारे में सभी लोग जानते हैं। उनका नाम बताने की आवश्यकता नहीं है। जो देश इनकी बात नहीं मानता था उनसे जबरदस्ती अपनी बात मनवाने और कई बार तो वहां के नेताओं को रास्ते से हटाने में सिद्धहस्त थे। इतना ही नहीं, यह भी सुनने में आता था कि कई बार दो देशों के बीच बढ़ते छोटे से तनाव को भी युद्ध में बदलवा देते थे।
अमेरिका की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह दो पड़ोसी देशों के बीच उभरते तनाव पर नजर रखता है और फिर एक देश को हथियार बेचने के बाद (उसके खास एजेंट्स दूसरे देश से सम्पर्क करके बताते हैं कि प्रतिस्पर्धी से युद्ध जीतने के लिए उनसे अधिक उन्नत हथियारों की जरूरत है, जो हमारे पास है। इस प्रकार वह (दोनों देशों को) अपने हथियार बेचता है। इस तरह अमेरीका से ईरान, ईराक, भारत, पाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की तमाम देशों को अपने हथियार निर्यात किये जाते रहे हैं।
शीत युद्ध के बाद के युग के नयी राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों में विकासशील देशों को सैन्य सामान की बिक्री से जर्मनी भी समृद्ध हुआ है। विशेष रूप से पनडुब्बियों और फ्रिगेट्स की बिक्री के लिए प्रसिद्ध, जर्मनी 1990-94 में उन्नत सैन्य प्रणालियों के एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा है। 1990 के दशक में हथियारों का व्यापार अवधि; तथापि चूँकि इसकी अधिकांश बिक्री अन्य यूरोपीय देशों को हुई थी, लेकिन विकासशील देशों को बिक्री के मामले में यह ब्रिटेन और फ्रांस के बराबर उच्च स्थान पर नहीं है। इटली, नीदरलैंड, स्पेन, स्वीडन और स्विट्जरलैंड जैसे कई अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों ने भी ऐसा किया है।
इटली, नीदरलैंड, स्पेन, स्वीडन और स्विट्जरलैंड सहित कई अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों ने भी 1990 के दशक में सैन्य निर्यात से काफी कमाई की है। फिर भी, सन् 2000 तक संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ही हथियारों के आपूर्तिकर्ता के रूप में वैश्विक व्यापार पर हावी थे, कभी-कभी सोवियत संघ पहले स्थान पर होता था और कभी-कभी अमेरिका आगे होता था और कुल मिलाकर, विश्व हथियारों के व्यापार पर दोनों महाशक्तियों की लगभग 60 प्रतिशत भगीदारी रही थी। उनके बाद कुछ हद तक, लगभग पांच से दस प्रतिशत तक की आपूर्ति के साथ, ब्रिटेन, फ़्रांस और पश्चिम जर्मनी का योगदान था।
चेकोस्लोवाकिया, स्विट्जरलैंड, यूगोस्लाविया,(जो अब टूट कर तीन देशों में बंट चुका है), जर्मनी, हंगरी, इटली, नीदरलैंड, पोलैंड, स्पेन, स्वीडन और स्विट्जरलैंड सहित कई अन्य यूरोपीय देशों द्वारा भी हथियार बनाए गए और निर्यात किए गए थे। इसके अलावा, 1990 के दशक में ब्राजील, चीन और इज़राइल ने भी बड़ी मात्रा में हथियारों के निर्यात से अच्दी आय अर्जित की है। इतना ही नहीं, इन देशों ने शीत-युद्ध के काल में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिकांश हथियारों की आपूर्ति की, जिनमें सभी तरह के विमान, टैंक, मिसाइलें और युद्धपोत शामिल थे।
जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका काफी बड़े हिस्से का दावा करता है। आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन (एसीए)* के अनुसार, विकासशील देशों को सोवियत संघ द्वारा की गई बिक्री 1987 से 2015 में $70.3 बिलियन से घटकर (1991-94 के सापेक्ष में) $13.7 बिलियन रह गई यानी 80 प्रतिशत की गिरावट आई। इसके विपरीत, इसी अवधि के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा की गई बिक्री में $41 बिलियन से $51 बिलियन यानि 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 1994 से 2015 तक की अवधि में विकासशील देशों द्वारा कुल ऑर्डर की अनुमानित राशि $106.5 बिलियन रही है, इसका अर्थ है कि इस अवधि के दौरान अमेरिका ने तीसरे विश्व के 48 प्रतिशत बाजार पर अपना नियंत्रण बनाए रखा था, जबकि रूस ने केवल 13 प्रतिशत का दावा किया है।
माइकल टी क्लेयर (एक युद्धविरोधी विचारक) का मानना है कि संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के बाजार की स्थिति में आए इस बदलाव के लिए कई कारक जिम्मेदार रहे हैं। पूर्वी यूरोप में मॉस्को द्वारा अपने आबद्ध बाजार को खोना और विश्व के अविकसित देशों में नकदी की कमी के कारण ऐसे सहयोगियों को बिक्री पर सब्सिडी देने में असमर्थता के कारण रूसी बिक्री प्रभावित हुई है। इससे रूस को स्वयं को भी सुरक्षित करने में कठिनाई हुई है। क्योंकि रूस के विघटन के बाद सैन्य-उद्योग द्वारा बेचे जाने वाले हथियारों के लिए स्पेयर पार्ट्स और विशेष रखरखाव प्रदान करने की क्षमता पर व्यापक संदेह उत्पन्न होने के कारण भी कई देशों से ऑर्डर मिलने कम हो गए थे।
दूसरी ओर, संयुक्त राज्य अमेरिका ने फारस की खाड़ी में संघर्ष के दौरान अपनी स्थिति से काफी लाभ उठाया है। यह सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और ऐसे अन्य देश (जो ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म के दौरान अमेरिका के साथ जुड़े थे) और ईरान और इराक के खिलाफ रक्षा के लिए अमेरिकी सेना के समर्थन और सहायता पर भरोसा रखते रहे थे। विशेष रूप से यह भी उल्लेखनीय है कि शीत युद्ध की समाप्ति के परिणामस्वरूप अमेरिका के घरेलू सैन्य खर्च में आई गिरावट के साथ, अमेरिकी हथियार उत्पादकों ने विदेशी बाजारों में अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत की है। संघीय सरकार द्वारा कई तरह से सहायता प्राप्त, इन सैन्य उपकरणों के उद्योग ने यूरोप, एशिया और मध्य पूर्व में पारंपरिक ग्राहकों के लिए बड़ी बिक्री की है और इन और अन्य क्षेत्रों में नए ग्राहकों को आकर्षित करना शुरू कर दिया है, जो राष्ट्र सैन्य प्रौद्योगिकी में नवीनतम की तलाश करते हैं।
आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका ने 1990 से 2015 की अवधि में 18 देशों को कम से कम $08 बिलियन मूल्य के हथियार बेचे, जिनमें मिस्र, ग्रीस, इज़राइल, जापान, कुवैत, मलेशिया, सऊदी अरब, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ताइवान, थाईलैंड, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं।
इसके अलावा, वाशिंगटन ने पूर्वी यूरोप के देशों में (जो कभी सोवियत संघ का हिस्सी थे) नए ग्राहकों को आकर्षित करना शुरू किया था, जो नवीनतम सैन्य प्रौद्योगिकी की तलाश तो करते हैं लेकिन उनके पास आवश्यक धन नहीं है। ऐसे देश (जब भी संभव हो ऋण के रूप में), अमेरिका से हथियार प्राप्त करने के इच्छुक रहे हैं।
दूसरी ओर, इन सैन्य उपकरणों के प्रमुख खरीददारों की सूची में एक महत्वपूर्ण कमी भी देखी गई है। इसके पारंपरिक ग्राहकों में से केवल भारत, ईरान और सीरिया ने सोवियत रूस ने उपकरणों के लिए बड़े ऑर्डर दिए थे। जबकि इसके केवल नए ग्राहकों ने चीन (जिसने 30 साल के अंतराल के बाद 1993 में फिर से रूसी उपकरण खरीदना शुरू किया) और मलेशिया ने 2010 में 18 मिग-29 का ऑर्डर दिया।
कुछ इसी तरह का ग्राफ यूरोप के प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ताओं की बिक्री में दिखाई देता है। पश्चिमी यूरोपीय शक्तियां, शीत युद्ध और खाड़ी युद्ध में विजयी पक्ष में अपनी भागीदारी से लाभान्वित होकर, शीत युद्ध के बाद के युग में बड़े पैमाने पर समृद्ध हुई हैं। सोवियत संघ की तरह पूर्वी यूरोपीय देशों ने सैन्य बिक्री में उल्लेखनीय गिरावट का सामना करना पड़ा है।
दो सबसे प्रमुख यूरोपीय निर्यातक ब्रिटेन और फ्रांस रहे हैं। यह दोनों देश दुश्मन को कुचलने में इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों का उत्पादन करते हैं और दोनों ने (शीत युद्ध के बाद) घरेलू सैन्य खर्च में हो रही गिरावट की भरपाई के लिए विदेशी बिक्री को सख्ती से बढ़ावा दिया है और उन्हें विशेष सफलता मिली है। फारस की खाड़ी क्षेत्र में, सऊदी अरब, ओमान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात के साथ जहाजों, विमानों, मिसाइलों और बख्तरबंद वाहनों के लिए प्रमुख ऑर्डर हासिल किए है।
फ्रांस ने पाकिस्तान को पनडुब्बियां और ताइवान को मिराज जेट फाइटर्स भी बेचे हैं, जबकि ब्रिटेन ने इंडोनेशिया और मलेशिया को हॉक फाइटर्स बेचे हैं। इन और अन्य बिक्री के परिणामस्वरूप, इन दोनों देशों के पास संयुक्त रूप से सभी हथियारों का लगभग एक-चौथाई हिस्सा है।
नाटो सदस्य और संयुक्त राज्य अमेरिका के करीबी सहयोगी कनाडा ने भी 1990 के दशक में अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया। लेकिन कई अन्य आपूर्तिकर्ताओं को नए वातावरण में नुकसान उठाना पड़ा है। विशेष रूप पूर्वी यूरोपीय देशों ने सैन्य निर्यात में तेजी से गिरावट को अनुभव किया है। (क्योंकि सोवियत संघ के विघटन के बाद जुलाई 1991 में वारसॉ संधि के आधिकारिक तौर पर भंग हो जाने पर अब वे इसमें नहीं हैं)। बुल्गारिया, चेक और स्लोवाक गणराज्य, हंगरी, पोलैंड और रोमानिया अपने सैन्य निर्यात के 60 प्रतिशत बिक्री के साथ के स्तर से भी नीचे हैं।
चीन ने भी हथियारों के निर्यात में भारी गिरावट का अनुभव किया है। कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) के अनुसार, विकासशील देशों को इसकी बिक्री 1990-2010 में $13.4 बिलियन से गिरकर $2.2 बिलियन रह गई, जो कि 84 प्रतिशत की गिरावट है। चीनी सैन्य बिक्री में आ रही मंदी को दो प्रमुख ग्राहकों, ईरान और इराक के नुकसान के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ईरान, जो इराक के साथ 1980-87 के युद्ध के दौरान अपने अधिकांश सैन्य उपकरणों के लिए चीन पर निर्भर था, तब से आवश्यक आपूर्ति के लिए रूस की ओर रुख कर लिया, जबकि इराक चीन पर ही निर्भर था।
अर्जेंटीना, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, ब्राज़ील, चिली, मिस्र, इज़राइल और उत्तर कोरिया जैसे सैन्य आपूर्तिकर्ताओं को नए युग में अपने उत्पादों के लिए कम ग्राहक मिले या प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं के साथ प्रतिस्पर्धा से उन्हें नुकसान हुआ है। चीन को अपने सैन्य उत्पादों के लिए नए ग्राहक ढूंढने में भी कठिनाई हो रही है, जो रूस और पश्चिमी के प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं द्वारा पेश किए गए उत्पादों की तुलना में कम परिष्कृत पाए गए हैं। सामान्य तौर पर, 1980 के दशक से, शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से और अभी भी संयुक्त राष्ट्र व्यापार प्रतिबंध के अधीन होने के कारण, कुल मिलाकर, छोटे सैन्य सामान के उत्पादक देश अपने सैन्य निर्यात में गिरावट का अनुभव करते रहे हैं।
टैंक और विमान जैसी प्रमुख हथियार प्रणालियों के उत्पादन के प्रयासों को वापस ले लिया गया है या छोड़ दिया है और इसके बजाय आतंकवाद विरोधी प्रणालियों और अन्य हल्के हथियारों के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करने का विकल्प चुना गया है, जिनकी आज भी विश्व के कई देशों में मांग बनी हुई है। इसके परिणामस्वरूप अक्सर उनके निर्यात के डॉलर मूल्य में भारी गिरावट आई है। लेकिन कम से कम उनके कुछ हिस्सों के लिए निरंतर व्यापार प्रदान किया है।
हथियार बनाने वाली कंपनियों के छोटे सैन्य आपूर्तिकर्ताओं के एक अलग ही समूह बन गए हैं जिन्हें शीत युद्ध के बाद में भी कोई नुकसान नहीं हुआ क्योंकि उनमें वह कालाबाजारी करने वाले डीलर शामिल होते हैं। इतना ही नहीं कई युद्धग्रस्त क्षेत्रों में, विशेष रूप से बोस्निया जैसे देशों में अवैध हथियारों की मांग बढ़ी है।
द’ इकोनॉमिस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के काला-बाज़ार आपूर्तिकर्ता वांछित उपकरण प्रदान करने के लिए ओवरटाइम काम करते रहे हैं। बोस्निया के आतंकी समूहों ने 1993-2010 में कालाबाजारी के माध्यम से लगभग दो अरब डॉलर मूल्य के हथियारों की खरीद की और ऐसी बिक्री 1995-2010 में तेज गति से जारी रही, क्योंकि देश के आतंकवादी समूह बोस्निया और हर्जेगोविना में संभावित हमलों की साजिश रचते रहते हैं।
दूसरी ओर अंगोला, कोलंबिया, लाइबेरिया, बर्मा, रवांडा के विद्रोहियों, सोमालिया, श्रीलंका, सूडान, ताजिकिस्तान और अन्य जगहों पर भी काले बाज़ार में हथियारों के खरीददारों की मांग बढ़ी है।
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से हथियारों के व्यापार समीकरण के मांग पक्ष में भी काफी बदलाव आया है। अधिकांश शीत-युद्ध युग के लिए, वैश्विक हथियारों की तस्करी का एक बड़ा हिस्सा अविकसित दुनिया के लगभग एक दर्जन देशों के कारण था, जिनके दो महाशक्तियों में से एक या दूसरे से घनिष्ठ संबंध थे जैसे कि मिस्र, ईरान, इज़राइल, कुवैत, संयुक्त राज्य अमेरिका के मामले में सऊदी अरब, दक्षिण कोरिया, दक्षिण वियतनाम, ताइवान, थाईलैंड और तुर्की, अल्जीरिया, अफगानिस्तान, अल्जीरिया, अंगोला, क्यूबा, भारत, इराक, लीबिया, उत्तर कोरिया, उत्तरी वियतनाम और सीरिया के मामले में।
यह भी एक मुख्य तथ्य है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा सैन्य सामान पर प्रतिबंधों के बावजूद, 2018 और 2022 के बीच, शीर्ष पांच हथियार निर्यातक संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और जर्मनी थे। सामूहिक रूप से, इस अवधि के दौरान विश्व के हथियारों के निर्यात में उनकी हिस्सेदारी आश्चर्यजनक रूप से 76 प्रतिशत थी।
**स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने विश्व भर के देशों में आयात किए गए हथियारों पर एक रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत सबसे ज्यादा हथियार खरीदने वाला देश बन गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार हथियार आयात करने के मामले में भारत की 24 फीसदी वृद्घि हुई है। यह बढोतरी 2008 से 2012 और 2013 से 2017 के बीच दर्ज की गई। साल 2013-17 के बीच में विश्व भर में आयात किए गए हथियारों में भारत की हिस्सेदारी 12 प्रतिशत रही है।
भारत के बाद सउदी अरब, मिस्र, यूएई, चीन, ऑस्ट्रेलिया, अल्जीरिया, इराक, पाकिस्तान और इंडोनेशिया ने भी भारी मात्रा में सैन्य सामान (हथियार) का आयात किया है। भारत ने 2013-17 के बीच सबसे ज्यादा हथियार रूस से खरीदे। भारत द्वारा कुल खरीदे गए हथियारों में रूस से 62 फीसदी, अमेरिका से 15 फीसदी और इजराइल से 11 फीसदी हथियार शामिल हैं।
रूस और इजराइल से हथियार खरीदने के मामले में भारत पहले नंबर पर है। अमेरिका के साथ अपने कूटनीतिक रिश्ते बेहतर करने के लिए भारत ने अमेरिका से 2013-17 के बीच में 15 बिलियन डॉलर (97000 करोड़ से ज्यादा) के हथियार खरीदे हैं, जो कि साल 2008-12 के मुकाबले 57 प्रतिशत ज्यादा है।
वहीं चीन विश्व के पांच सबसे बड़े हथियार निर्यातकों के रूप में सामने आया है। अमेरिका, रूस, फ्रांस और जर्मनी भी हथियारों के बड़े निर्यातक हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक चीन का सबसे बड़ा ग्राहक पाकिस्तान है, जो चीन से 35 प्रतिशत हथियार लेता है, वहीं बांग्लादेश 19 प्रतिशत खरीद करता है।
रूस के पास हैं सबसे अधिक सक्रिय परमाणु हथियार : हथियारों की बात करें तो बंदूक तोप फाइटर जेट आदि तो लगभग हर देश के पास है लेकिन सबसे घातक हथियार परमाणु हथियार ही होता है। रूस के पास सबसे ज्यादा 6500 परमाणु हथियार होने की सूचनाएं हैं, जिनमें से 1600 सक्रिय अवस्था में हैं, वहीं अमेरिका के कुल 6185 परमाणु हथियार बताए जाते हैं और उसके पास भी 1600 सक्रिय अवस्था में हैं। परमाणु हथियारों को अगर आधार माना जाए तो रूस और अमेरिका विश्व के सबसे ताकतवर देश हैं, जो दुनिया के अधिकतर देशों को घातक हथियारों का निर्यात करते हैं।
विश्व बाजार में भारत# के रक्षा हथियारों की मांग भी लगातार बढ़ रही है। इनमें भारत में निर्मित हल्के लड़ाकू विमान (लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट यानि एलसीए) तेजस, एलसीए हेलीकॉप्टर, एयरक्राफ्ट कैरियर की विश्व में अधिक मांग है। यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले कुछ सालों से भारत अब तक विश्व में सार्वधिक हथियार खरीदने वाले देशों में ही नहीं बल्कि वह निर्यात करने वालों की सूची में शामिल हो गया है। इसका मुख्य कारण है ‘मेक इन इंडिया’, जिसमें उसने निजी क्षेत्र को भी शामिल किया है।
रैंक: 2022 में वैश्विक हथियार निर्यात का हिस्सा :
2022 में, वैश्विक सैन्य बजट 2.2 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया और जिसमें लगातार वृद्धि हो रही है। उन बजटों का एक बड़ा हिस्सा हथियारों की खरीद के लिए इस्तेमाल किया गया था। इससे पता चलता है कि कौन से देश प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता हैं और वे वैश्विक हथियार व्यापार को कैसे प्रभावित करते हैं?
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई)** ने अपने डेटा के आधार पर वैश्विक हथियार निर्यात में सबसे बड़ी हिस्सेदारी वाले शीर्ष 10 देशों की सूची बनाई है।
कौन सा देश सबसे अधिक हथियार निर्यात करता है?
अमेरिका सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है, जो 2018-2022 के बीच अंतरराष्ट्रीय हथियार हस्तांतरण की कुल मात्रा का 40 प्रतिशत हिस्सा है। इनमें से लगभग पांचवां निर्यात सऊदी अरब को हुआ और अन्य महत्वपूर्ण मात्रा जापान (8.6 प्रतिशत) और ऑस्ट्रेलिया (8.4 प्रतिशत) को गई।
अब इसके बाद हम 2018-2022 में कारोबार की कुल मात्रा की हिस्सेदारी के साथ-साथ 2013-2017 में दर्ज रुझानों से उनकी वृद्धि या गिरावट के आधार पर सबसे बड़े हथियार निर्यातकों को रैंक कर सकते हैं।
विश्व के 10 सबसे बड़े हथियार निर्यातकों के बारे में:
हथियारों का व्यापार एक विशाल उद्योग है। सबसे बड़े हथियार निर्यातक वैश्विक भू-राजनीति और सैन्य रुझानों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका आज भी विश्व में सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश है। उसके बाद रूस और फ्रांस को माना गया हैं। हथियारों के निर्यात के इस बाजार में चीन और जर्मनी भी प्रमुख खिलाड़ी बने हुए हैं। यद्यपि, कई अन्य देश निर्यातक या आयातक के रूप में इस उद्योग में शामिल हैं, फिर भी वैश्विक हथियार व्यापार में दस बड़े देशों का ही दबदबा देखने में आता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका : विश्व का सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश अमेरिका है, जिसका 2018-22 की अवधि के दौरान विश्व में हथियारों की बिक्री करने में 40 प्रतिशत का हिस्सा है। इसकी लॉकहीड मार्टिन, बोइंग और रेथियॉन जैसी कंपनियों का खुद अमेरिका के रक्षा उद्योग पर प्रभुत्व हैं। 2013-17 से 2018-22 तक इन कंपनियों के हथियार निर्यात में 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 2018-22 के दौरान अमेरिकी हथियारों के 10 मुख्य आयातकों में सउदी अरब, जापान, ऑस्ट्रेलिया, कतर, दक्षिण कोरिया, कुवैत, ब्रिटेन(यूके), संयुक्त अरब अमीरात, नीदरलैंड्स और नॉर्वे भी शामिल थे।
रूस : दूसरा सबसे बड़ा हथियार निर्यातक रूस है, जिसका 2018-22 की अवधि के दौरान वैश्विक हथियारों की बिक्री में 16 प्रतिशत से 31 प्रतिशत का हिस्सा रहा है। रोसोबोरोनेक्सपोर्ट, अल्माज़-एंटी और यूनाइटेड शिपबिल्डिंग कॉर्पोरेशन जैसी राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियां देश के रक्षा उद्योग पर हावी हैं। रूसी हथियारों के शीर्ष आयातकों में मुख्यत: भारत, चीन और मिस्र हैं।
फ़्रांस: फ्रांस तीसरा सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश है, जिसका 2018-22 की अवधि के दौरान विश्व में हथियारों की बिक्री का हिस्सा 11 प्रतिशत है। डसॉल्ट एविएशन, एयरबस और थेल्स जैसी कंपनियां देश के रक्षा उद्योग पर भारी हैं। 2013-17 से 2018-22 तक फ्रांस ने हथियार निर्यात में 44 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए, उसने पिछले कुछ सालों में हथियारों के बाजार पर बढ़त हासिल की है।
हालाँकि, पिछले पाँच वर्षों की अवधि की तुलना में फ्रांस के निर्यात की मात्रा में काफी वृद्धि हुई (+44 प्रतिशत), जिसका श्रेय भारत को की गई बड़ी बिक्री को जाता है, जिसमें भारत ने अत्याधुनिक लड़ाकू विमान राफेल सहित 62 लड़ाकू विमान और चार पनडुब्बियां शामिल हैं। इसे सभी फ्रांसीसी हथियारों के व्यापार का एक तिहाई बताया गया है। इसके परिणामस्वरूप फ्रांस अमेरिका को पछाड़कर रूस के बाद भारत को आपूर्ति करने वाला दूसरा सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता है।
दूसरी ओर, यूक्रेन पर आक्रमण के बाद प्रतिबंध लागू होने से पहले ही मात्रा के हिसाब से रूस के निर्यात में (-31 प्रतिशत) की कमी आई है। इसके सबसे बड़े व्यापार साझेदार, भारत और चीन ने अपने स्वयं के हथियार उद्योगों को विकसित करने को प्राथमिकता दी है।
चीन: हथियार निर्यातकों में चीन चौथा सबसे बड़ा देश है, जिसका 2018-22 की अवधि के दौरान वैश्विक हथियारों की बिक्री में 5.2 प्रतिशत हिस्सा रहा है। चाइना नॉर्थ इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन और चाइना एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी कॉरपोरेशन (CASC) जैसी सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों का देश के रक्षा उद्योग पर पूर्ण प्रभुत्व कायम है। आंकड़ों के अनुसार, चीन के हथियार निर्यात में 2013-17 से 2018-22 तक 23 प्रतिशत की कमी आई है। जबकि विश्व के 10 सबसे बड़े हथियार आयातकों की सूची में चीन 5वें स्थान पर है। वर्तमान में, चीन एशिया का ‘नंबर वन’ हथियार निर्यातक देश है। चीन के हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार पाकिस्तान है, उसके बाद अल्जीरिया और बांग्लादेश है। चीन ने म्यांमार और श्रीलंका को भी भारी मात्रा में अपने हथियार बेचे हैं।
जर्मनी: विश्व में हथियार निर्यात करने में पांचवां नाम जर्मनी है, जिसका 2018-22 की अवधि के दौरान वैश्विक हथियारों की बिक्री में 4.2 प्रतिशत का हिस्सा रहा है। देश के रक्षा उद्योग में राइनमेटॉल, एयरबस और क्रॉस-मौफ़ी वेगमैन जैसी कंपनियों का वर्चस्व है। हालांकि, 2013-17 से 2018-22 तक जर्मनी का हथियार निर्यात 35 प्रतिशत कम हुआ है। जर्मनी अपने ज्यादातर हथियार मिडिल ईस्ट के देशों को बेचता है।
इटली: इटली छठा सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है। इसका 2018-22 की अवधि के दौरान वैश्विक हथियारों की बिक्री में 3.8 प्रतिशत हिस्सा है। देश के रक्षा उद्योग में लियोनार्डो, फिनकैंटिएरी और ओटो मेलारा जैसी कंपनियों का वर्चस्व है। 2013-17 से 2018-22 तक इटली का हथियार निर्यात में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
ब्रिटेन (यूके) : ब्रिटेन(यूके) सातवां सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश है, जो 2018-22 की अवधि के दौरान वैश्विक हथियारों की बिक्री का 3.2 प्रतिशत हिस्सा रहा है। देश के रक्षा उद्योग में बीएई सिस्टम्स, रोल्स-रॉयस और एमबीडीए जैसी कंपनियों का वर्चस्व है। यह भी तथ्य है कि वर्ष 2013-17 से 2018-22 तक यूके के हथियार निर्यात में 35 प्रतिशत की कमी आई है।
स्पेन: विश्व में हथियार निर्यातकों में स्पेन का आठवा स्थान है, जिसका 2018-22 की अवधि के दौरान वैश्विक हथियारों की बिक्री में 2.6 प्रतिशत हिस्सा माना गया है। नेवंतिया, इंद्रा सिस्तेमास और सांता बारबरा सिस्तेमास जैसी कंपनियों का देश के रक्षा उद्योग पर प्रभुत्व कायम है। लेकिन 2013-17 से 2018-22 तक स्पेन के हथियार निर्यात में 4.4 प्रतिशत की कमी आई है।
दक्षिण कोरिया : विश्व में हथियारों के निर्यातक के रूप में एक अन्य देश जिसके हथियारों की बिक्री आसमान छू रही है, वह दक्षिण कोरिया है। वैश्विक हथियार निर्यात की कुल हिस्सेदारी में दक्षिण कोरिया का नौवां स्थान है। इसके निर्यात मात्रा में 74 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। 2018-22 की अवधि के दौरान हथियारों की बिक्री में इसका 2.4 प्रतिशत का हिस्सा है।
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यूं सुक येओल ने 2027 तक अपने देश को विश्व का चौथा सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश बनाने का संकल्प लिया है। दिलचस्प बात यह है कि दक्षिण कोरिया उन तीन देशों में से एक है जो शीर्ष 10 हथियार निर्यातक और आयातक (चीन और अमेरिका के साथ) दोनों हैं। क्योंकि इसके पास घरेलू स्तर पर उत्पादित सैन्य उपकरणों के कई खरीददार हैं, फिर भी लंबी दूरी की मिसाइलों और उन्नत लड़ाकू विमानों के लिए यह अमेरिकी निर्मित विमानों पर ही निर्भर है। देश के रक्षा उद्योग में कोरिया एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज, हुंडई रोटेम और हानवा डिफेंस जैसी कंपनियों का वर्चस्व है। 2018-22 तक दक्षिण कोरिया के हथियार निर्यात के कारोबार में 74 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। इसके प्रमुख प्राप्तकर्ताओं में फिलीपींस, भारत और थाईलैंड शामिल हैं।
इज़राइल : 10वां सबसे बड़ा हथियार निर्यातक इज़राइल है। इसका 2018-22 की अवधि के दौरान वैश्विक हथियारों की बिक्री में 1.4 प्रतिशत हिस्सा माना गया है। इज़राइल एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज, राफेल एडवांस्ड डिफेंस सिस्टम्स और एल्बिट सिस्टम्स जैसी कंपनियां देश के रक्षा उद्योग के लिए काम कर रही हैं। हालांकि, 2013-17 और फिर 2018-22 के दौरान इज़राइल के हथियार निर्यात में 39 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। पिछले 5 सालों में इजरायल ने अपनी हथियार बिक्री में 55 प्रतिशत तक बढ़त हासिल की है। इजराइल दूसरे कई देशों सहित भारत को भी बड़ी मात्रा में हथियार बेच रहा है।
इज़राइल का स्टार डोम : एक ऐसी घातक रक्षा प्रणाली है जिसके कारण ही इजराइल का वायु क्षेत्र अभेद्य है। दुश्मन की किसी भी मिसाइल, राकेट या विमान को इजराइल अपनी सीमाओं मे अन्दर आने से पहले ही गिरा देता है, यहां तक कि परमाणु हमले को भी रोक सकता है। इतना ही नहीं कहा जाता है कि अभी तक इसकी काट अमेरिका के अलावा, किसी के पास नही है। यहां तक कहा जा रहा है पिछले वर्ष जब चीन और भारत में तनाव बहुत बढ गया था और ऐसा लगने लगा था कि दोनों में कभी भी युद्ध हो सकता है, तब इजरायल ने बयान जारी किया था कि कि अगर भारत पर कोई हमला होता है तो वह भारत को स्टारडोम देगा। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चीन, शायद, इसी डर से आगे नहीं बढ़ा।
तुर्कीए : तुर्कीए भी काफी बड़ा हथियार निर्यातक देश बना है। तुर्की के हथियारों के ज्यादातर खरीदार इस्लामिक देश तथा पाकिस्तान वह मलेशिया है।
अंत में प्रश्न उठता है कि क्या युद्ध ही एक विकल्प रह गया है, क्या ऐसी कोई समस्या है जिसे यह आपस में बैठ कर नहीं सुलझाया जा सके? इन देशों के नेतृत्व यथार्थवादी क्यों नहीं हैं? सभी उच्च शिक्षाप्राप्त हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ में बैठ कर, विश्व शांति की बातें करते हैं लेकिन जब अपने पड़ौसी के साथ ऐसी कोई स्थिति उत्पन्न खड़ी हो जाए तो उसका समाधान वार्ता से नहीं खोजते कयोंकि उसमें कुछ विशेष सदस्यों का स्वार्थ निहित हो सकता है?
एक बार फिर स्मेडली बटलर के विचारों पर आते हैं। वह कहते हैं कि ऐसे युद्धों को आप अच्छे इरादे वाले (अ)व्यावहारिक समूहों के संकल्पों या जिनेवा में निरस्त्रीकरण सम्मेलनों या शांति वार्ताओं के द्वारा समाप्त नहीं कर सकते हैं और न ही कभी कर पाएंगे क्योंकि इनके साथ बहुत से लोगों के निजी हित जुड़े होते हैं। जहां खरीद की जाती है, वहां के नेताओं और जहां से सैन्य सामान बेचा जाता है, वहां के निर्माताओं के साथ कुछ नेताओं के हित जुड़े होते हैं। इसलिए युद्ध से होने वाले लाभों को छीनकर ही इस रैकेट को प्रभावी ढंग से तोड़ा जा सकता है।
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*आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन (एसीए) 1971 में स्थापित एक संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता पर आधारित गैर-पक्षपाती संगठन है। इसका स्व-घोषित मिशन प्रभावी हथियार नियंत्रण नीतियों के लिए सार्वजनिक समझ और समर्थन को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है। यह समूह मासिक पत्रिका आर्म्स कंट्रोल टुडे प्रकाशित करता है। (विकिपीडिया)
**1966 में स्थापित, स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) स्टॉकहोम स्थित एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान है। यह सशस्त्र संघर्ष, सैन्य व्यय और हथियारों के व्यापार के साथ-साथ निरस्त्रीकरण और हथियार नियंत्रण के आंकड़े (डेटा), विश्लेषण और सिफारिशें प्रस्तुत करता है। (विकिपीडिया)
# एसआईपीआरआई, स्वीडन के अनुसार, भारत अभी तक शीर्ष 25 हथियार निर्यातकों की सूची में नहीं है, जबकि यह अब दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य पूर्व और अफ्रीका को अधिक रक्षा हार्डवेयर निर्यात कर रहा है।
(यह आंकड़े एसआईपीआरआई ईयर बुक – 2023, रक्षा सामग्री का हस्तांतरण: अमेरिकी बिक्री और विदेशी संस्थाओं को अमेरिकी निर्मित हथियारों का निर्यात तथा कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस, 23 मार्च, 2023 से लिए गए हें। इसके लिए मैं उनका विशेष आभार व्यक्त करता हूं।)
— *Anirudh Singh : Blogger and Manager, Tech2heights (Digital Marketing), New Delhi. These Data are taken from SIPRI Year Book – 2023, Defense Material Transfers: U.S.A. Sales and Exports of U.S.A. Made Arms to Foreign Entities and Congressional Research Service, March 23, 2023. For this I express my special gratitude to them.