*अनिरुद्ध सिंह
रतनगढ़ माता मंदिर :
आम तौर पर मैं किसी धार्मिक स्थल पर नहीं जाता हूं। लेकिन अप्रैल, 2022 में काम से बहुत बोर सा महसूस कर रहा था कि मम्मी ने स्थित रतनगढ़ मंदिर (मध्य प्रदेश का जिला दतिया) में जाने की इच्छा जताई, तो अनमने मन से रतनगढ़ वाली माता के दर्शन करने उनके साथ जाने का कार्यक्रम बनाया तो पता चला कि दिल्ली से ग्वालियर एयरपोर्ट और फिर वहां से करीब 85 कि.मी. की दूरी सड़क मार्ग से यात्रा तय करनी थी। (यदि दतिया शहर से आते हैं तो लगभग 55 कि.मी. की दूरी है लेकिन वहां रेलगाड़ी से जा सकते हैं।) हमने दिल्ली से ही, ग्वालियर से रतनगढ़ के लिए एक निजी कार बुक करा दी थी।
महत्ता :
रतनगढ़ माता का मंदिर घने जंगल में ‘सिंध’ नदी के किनारे पर स्थित है। बीहड़ इलाका होने के बावजूद मंदिर के चारों ओर प्राकृति के सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक के इन्ही चमत्कारिक दृश्यों के कारण यह एक दर्शनीय स्थल है। उसमें टेढ़ी-मेड़ी बहती हुई सिंध नदी भी मंदिर की पहाड़ी को लगभग दो ओर से घेरते हुए जो अपने आप में अद्भुत प्रतीत होती है।
विंध्याचल पर्वत के दतिया क्षेत्र में विराजने वाली रतनगढ़ वाली माता को आत्म बलिदान करने वाली राजकुमारी का मंदिर माना जाता है। ज्ञात हुआ कि ऐसे धार्मिक और प्राकृतिक वैभव में विराजमान रतनगढ़ माता का मंदिर श्रृद्धालु भक्तों के साथ-साथ ही क्षेत्र के नामी बागियों (डकैत) के आराध्य स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध रहा है। यह पवित्र स्थान ‘सिंध’ नदी के किनारे पर घने जंगल में है और सिंध नदी पर बने पुल को पार करके ही मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
रतनगढ़ माता मंदिर को देश का सबसे वजनी घंटा लगा होने का गौरव प्राप्त है। इस घंटे का वजन 1935 किलोग्राम है, जिसे ग्वालियर के मूर्तिकार प्रभात राय ने बनाया था। इस घंटे को रस्से की मदद से बजाया जाता है। |
लगभग 400 साल पुरानी बात है, जब मुस्लिम आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी का जुल्म ढहाने का सिलसिला जोरों पर था। राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला बहुत सुंदर थी। उस पर अलाउद्दीन खिलजी की बुरी नजर थी। तभी खिलजी ने अपनी इसी बुरी नजर से सेवढ़ा से रतनगढ़ में आने वाला पानी बंद कर दिया था। रतन सिंह की बेटी मांडुला व उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने अलाउद्दीन खिलजी के फैसले का सख्त विरोध किया तो इस विरोध के उत्तर में अलाउद्दीन खिलजी ने किले पर आक्रमण कर दिया। यह राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला और कुंवर गंगाराम देव की सेना ने यथासम्भव युद्ध किया पर पराजय को निकट देख राजकुमारी मांडुला तथा कुंवर गंगाराम देव ने जल में समाधि ले ली। उसके बाद से यह मंदिर अस्तित्व में आया। इस मंदिर की चमत्कारिक कथाएं भी प्रचलित हैं।
सर्पदंश (यानि सांप के कांटे) से पीड़ित : मान्यताओं के अनुसार कुंवर बाबा रतनगढ़ वाली माता के भाई हैं, जो अपनी बहन से बेहद स्नेह करते थे। कहा जाता है कि कुंवर महाराज जब जंगल में शिकार करने जाते थे तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे। इसीलिए जब किसी इंसान को कोई विषैला जानवर काट लेता है तो उसके घाव पर कुंवर महाराज के नाम का बंधन लगाते हैं। इसके बाद विषपीड़ित व्यक्ति को कुंवर महाराज के मंदिर में दर्शन कराने लाया जाता है। व्यक्ति मंदिर से करीब दो कि.मी. दूर स्थित सिंध नदी में स्नान करते ही बेहोश हो जाता है। उसे स्ट्रेचर की मदद से मंदिर तक लाया जाता है और कुंवर बाबा के मंदिर पर पहुंचकर जल के छींटे पड़ते ही सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ हो कर सर्पदंश की पीड़ा से यहां मुक्त हो जाता है। (यहां प्रशासन द्वारा लगभग तीन सौ से अधिक स्ट्रेचर्स की व्यवस्था की गई है) ।
अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मंदिर के निर्माण में छत्रपति शिवाजी का बड़ा योगदान था। कहा जाता है कि माता और कुंवर बाबा ने शिवाजी महाराज के गुरु रामदास जी को देवगढ़ के किले में दर्शन दिए थे और शिवाजी महाराज को फिर से मुगलों से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया था। यह युद्ध 17वीं सदी में छत्रपति शिवाजी और मुगलों के बीच हुआ था। फिर जब पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासन की सेना वीर शिवाजी के नेतृत्व में मराठा सेना से टकराई, तो मुगलों को बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा और मुगल सेना को परास्त करने के बाद शिवाजी ने इस मंदिर के निर्माण के लिए एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दान की थी। यह मंदिर छत्रपति शिवाजी महाराज की मुगलों पर विजय का प्रतीक है।
यहां मनोकामनाएं पूरी होने की भी चर्चाएं काफी मशहूर हैं। यहां पर भक्त अपनी-अपनी तरह से श्रद्धा प्रकट करते हैं। कोई नंगे पांव तो कोई जमीन पर लेट-लेट कर यहां आता है।
विंध्याचल पर्वत पर स्थित रतनगढ़ वाली माता के मंदिर में घंटा चढ़ाने की है मान्यता :
मां के दरबार में श्रृद्धालुओं द्वारा प्रतिवर्ष अपनी क्षमता के अनुसार अलग-अलग धातुओं जैसे पीतल, तांबा आदि के छोटे-बड़े सैकड़ों घंटे चढ़ाए जाते रहे हैं। पूर्व में मंदिर पर एकत्रित हुए घंटों की नीलामी कर दी जाती थी। वर्ष 2015 में जिला प्रशासन द्वारा यहां एकत्रित हुए घंटों को गलवाकर एक विशाल घंटा बनवाने की एक योजना बनाई गई और कुल नौ धातुओं से मिलाकर एक विशाल घंटा बनवाया गया, जिसे प्रख्यात मूर्तिशिल्प विशेषज्ञ श्री प्रभात राय ने तैयार किया है। घंटे की ऊंचाई लगभग सात फुट है और गोलाई 13 फुट है।
इस घंटे की विशेषता यह है कि इसको कोई भी बजा सकता है, चाहे हो अस्सी साल का बुजुर्ग या चार साल का बालक। इस विशाल घंटे को टांगने के लिए लगाए गए एंगल तथा उन पर मढ़ी गई पीतल और घंटे के वजन को जोड़ा जाए तो लगभग 50 क्विंटल बनता है।
हमें पूजा कराने वाले पंडित जी ने बताया कि बीहड़, बागी और बंदूक के लिए कुख्यात रही तीन प्रदेशों में फैली चंबल घाटी का डकैतों से रिश्ता 200 वर्ष से भी अधिक पुराना है। यहां 500 कुख्यात डकैत रहा करते थे। इस मंदिर में चंबल क्षेत्र के सभी बागी (डाकू) दर्शन करने आते और घंटे चढ़ाते थे। लेकिन इस दौरान इस इलाके में एक भी डकैत पकड़ा नहीं गया। इस इलाके का ऐसा कोई बागी नहीं होगा जिसने यहां आकर माथा टेककर आशीर्वाद नहीं लिया हो और मंदिर में घंटा नहीं चढ़ाया हो। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर के आसपास या रास्ते पर यदि किसी भक्त को चंबल के डकैत मिल भी जाते तो वह मां के भक्तों को भी सम्मान देते थे।
घने जंगल में होने के बाद भी, इस पवित्र स्थान पर प्रति वर्ष भाई दूज (दीवाली के अगले दिन) पर लगने वाले मेले के अवसर पर यहां 20 से 25 लाख लोग दर्शन करने पहुंचते हैं। नवरात्र में भी माता के दर्शन के लिए यहां हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं और श्री माता के साथ ही कुंवर महाराज और अन्य देवों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
संकुआं धाम :
अगले दिन सवेरे ही हमने यहां से लगभग 50 कि.मी. दूर संकुआ धाम जाने का कार्यक्रम बनाया था। पहले से ही एक टैक्सी बुक करा ली थी। राज्य राजमार्ग 19 से, पहाडी रास्तों और हरियाली को देखते हुए हमें यहां पहुंचने में करीब एक घंटा से थोडा ज्यादा समय लगा।
सेवढ़ा दतिया जिले का एक बेहद ही खुबसूरत स्थान है। सेवढ़ा का दूसरा नाम संकुआ धाम है।
इसे पहले कन्हारगढ़ कहा जाता था, लेकिन आजकल सेवढ़ा संकुआ धाम के नाम से अधिक प्रचलित है।
सिंध नदी पर स्थित घाट को संकुआ धाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मान्यता है कि यहीं पर, सिंध नदी के किनारे संकुआं धाम पर ब्रह्मा जी के चार मानस पुत्रों (ऋषि सनक, सनन्द, सनातन, सनत) ने तपस्या की थी। इस धाम के बारे में एक और मान्यता यह भी है कि इसे सभी तीर्थों का भानजा (बहन का बेटा) कहा जाता है। अत: इस घाट पर स्नान की अपनी एक अगल महत्ता है। प्राकृतिक शांत वातावरण पर्यटकों को यहां आने के लिए आकर्षित करता है।
सेवढ़ा में सिंध नदी के किनारे बहते सुन्दर झरने, कन्हारगढ़ दुर्ग, माता माडुला देवी मंदिर के अलावा अलीखेरे के हनुमान, जिंदपीर, शीतला माता, हरदौल बाग, बारहद्वारी, संकेश्वर घाट पर गौमुख, शुक्राचार्य मठ, बालखण्डेश्वर मंदिर, बालाजी मंदिर, गूदरिया मठ, रामहोराम की बगिया, सेवढ़ा के निकट जंगल में सिद्ध की रइया, शिकारगाह, देवगढ़ का किला, आमखो, सिरसा की बावड़ी आदि दर्शनीय स्थल है। यहां की प्राकृतिक आभा को देखते हुए, प्रशासन की ओर से संकुआ पर घाट को विकसित किया जा रहा था। समय की कमी के कारण सब स्थानों पर 10 से 15 मिनट ही रुक पाए। कार्तिक मास में एक माह लगने वाला मेला श्रद्धालुओं और अन्य पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहता है।
हमें बताया गया कि प्राय: सनकुआ धाम से निकलने वाली सिंध नदी की जलधारा मई में पड़ने वाली भीषण गर्मी के कारण सूखने के कगार पर पहुंच जाती थी, जिससे क्षेत्र के जलस्तर में कमी आ जाती है। लेकिन हम अप्रैल के पहले सप्ताह में आए थे, इसलिए झरने का मनोहारी दृश्य देखते ही बन रहा था। दूसरी ओर इस तपोस्थली पर प्रकृति के विहंगम दृश्य देखते ही मन को एक शांति का आभास होता है। दोपहर के कुछ बाद ही हमने वहां से ग्वालियर के लिए प्रस्थान किया।
संकुआ घाट
कैसे पहुंच सकते हैं ?
हवाई मार्ग : रतनगढ़ (दतिया) के लिए निकटतम हवाई अड्डा ग्वालियर एयरपोर्ट है जो यहां से लगभग 85 कि.मी. की दूरी पर है। रेल मार्ग : रतनगढ़ सड़क मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। यह दतिया से लगभग 60 कि.मी. है। दतिया रेलवे स्टेशन पर उतर कर वहां से बस लेनी होती है। लेकिन यदि आप दतिया नहीं आना चाहें तो ग्वालियर से सीधे ही रतनगढ़ जा सकते हैं जो लगभग 75 कि.मी. दूर पड़ता है। ग्वालियर और दतिया दोनों ही स्थानों से पूर्व बुकिंग पर टैक्सियां भी उपलब्ध हो जाती हैं। क्षेत्र में ठहरने की बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है, फिर भी मंदिर से करीब पांच कि.मी. पहले कुछ अच्छे गैस्ट हाउस हैं, जिनमें खानपान की ठीक-ठाक सुविधाएं हैं। |
लेखक : Tech2heights (डिजीटल मीडिया), नई दिल्ली के प्रबंधक।