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लद्दाख : एक यात्रा

धरती पर स्‍वर्ग         

 *डा.सुशांत कुमार सेनापति

लद्दाख का अर्थ पर्वत मालाओं के बीच ऊंचे-ऊंचे पर्वतीय मार्ग है। यह वर्तमान भारत का एक संघ शासित प्रदेश है। इसके पूर्व यह जम्मू व कश्मीर राज्य का एक अंग था। इसके पूर्व दिशा में तिब्बत (चीन) दक्षिण में हिमाचल प्रदेश एवं पश्चिम में बाल्तिस्‍तान (पाकिस्तान) है। दक्षिण-पूर्व में काराकोरम पास तथा पूर्वोत्तर शेष में अक्साई चिन है। वर्तमान लद्दाख दो जिलों में बंटा हुआ है :  लेह एवं कारगिल। लद्दाख का मुख्यालय लेह शहर है। लद्दाख में मूल रूप से  छः नदियां हैं सिन्धु, श्योक एवं नुब्रा तीन नदियां लेह जिले में और शेष तीन सुरू, द्रास, एवं ज़ंस्कार कारगिल जिले में है। हर नदी अपनी-अपनी घाटियों के लिए प्रसिद्ध है जैसे ज़ंस्कार घाटी, सिन्धु घाटी, नुब्रा घाटी और इसमें आबादी बसी हुई है। लगभग लद्दाख के सारे क्षेत्र में नंगे पहाड़ है, पेड-पौधे तथा घास भी दिखाई नहीं देते हैं। अतः पूरे क्षेत्र में ऑक्सीजन की कमी है। लेकिन यहां के स्थानीय लोगों को आदत ही पड़ गई है। जो समतल भूमि से जाते है, उन्हें ऑक्सीजन की कमी दूसरे शब्‍दों में ‘हाई एल्टीट्यूड सिकनेस’ से जूझना पड़ता है। लद्दाख के घाटी क्षेत्र में स्थानीय लोग रहते हैं लेकिन पूरे क्षेत्र में कम आबादी है। भारत का एक अन्तर्राष्ट्रीय संवेदनशील क्षेत्र  होने के नाते, लद्दाख में हर जगह भारतीय सेनाओं के स्थायी/ अस्थायी कैम्प दिखाई देते हैं।

जून महीने के अंत में हमने परिवार के साथ लद्दाख यात्रा की और हमने सिर्फ लेह जिले का ही भ्रमण करने के लिए पांच दिन का कार्यक्रम बनाया था। पहला दिन तो विमान यात्रा से लेह पहुंचें और सीधे पहले से ही बुक किए हुए एक अतिथि गृह में आए तथा वहां आसपास घूमने में ही बीत गया। 24 घंटे बिताने के बाद दूसरे दिनदोपहर बादहमने ज़ंस्कार घाटी की ओर घूमनेजाने का कार्यक्रम बनाया था।

सिन्धु नदी, लेह शहर

लेह में प्रथम दिन हम संगम तक गए जहां सिन्धु नदी तथा ज़ंस्कार नदी का मिलन हुआ है। यह लेह से सिर्फ 35कि. मी. की दूरी पर लेह – श्रीनगर राजमार्ग पर अवस्थित है। यहां का प्राकृतिक मनोरम दृश्य दिल छू लेता है।

सिन्धु नदी का जल नीले रंग का तथा ज़ंस्कार नदी के जल का रंग मटमैला यानि भूरे रंग का होता है। संगम का यह एक अद्भूत दृश्य है।

(सिन्धु नदी तथा जंस्कार नदी का संगम स्थल)

यहां ज़ंस्कार घाटी में थोड़ी सी हरियाली तथा छोटे से आकार का शहर बन गया है। यहां नदी में राफ्टिंग के लिए व्यवस्था है। यहां पर दोनों नदियों के साथ – साथ सड़क गुजरती है, जो सीमा सड़क संगठन (बॉर्डर रोड ऑर्गेनाजेशन) द्वारा बनाया गया है। BRO के बोर्ड हर जगह दिखाई पड़तें है। लेह के संगम स्थल जाने के रास्ते में चुम्बकीय पर्वत (magnetic hill) आते हैं।

यह रास्ता चारों तरफ नंगी (वृक्ष और हरियाली के बिना) पहाडी के बीच से गुजरता है। कहा जाता है कि भौतिकीय आर्कषण के चलते  यहां की पहाड़ी वाहनों को अपनी ओर खींचती है। हम लोगों को गाड़ी से उतारने के बाद, चालक ने गाड़ी का संचालन बंद कर दिया,  लेकिन फिर भी वहवहां और ढलान न होने के बावजूद गाड़ी धीरे- धीरे आगे बढ रही थी। 

चुम्बकीय पर्वतपर लेखक परिवार के साथ

संगम स्थल से लौटते समय हमने गुरूद्वारा पत्थर साहब के दर्शन किए।

स्थानीय विश्वास के अनुसार पांचवीं सदी में गुरू नानक जी इस स्थान पर पधारे थे और कुछ दिन रुके थे। उस समय यहां पर एक दैत्य का बोलबाला था। स्थानीय लोगो ने दैत्य से बचने के लिए संत से गुहार लगाई और उसी समय दैत्य ने एक बड़ा सा पत्थर फेंका और वह पत्थर संत के पैर पर लगने से मोम (wax) बन गया और तब से यह स्‍थान पत्थर साहब गुरूद्वारा के नाम से जाना जाता है।

पत्थर साहब गुरूद्वारा

यह बहुत ही सुन्दर स्‍थान है। स्थानीय लोग तथा भारतीय सेना मिलकर इसका रखरखाव करते हैं। यहां लंगर तथा 24 घंटे चाय पीने की व्यवस्था है। हम पत्थर साहब गुरूद्वारा के प्रसाद तथा चाय का आनन्द लेते हुए आते समय ‘हॉल ऑफ फेम संग्रहालय’ देख कर आए यहां पर भारतीय सेनाओं की वीरता की कहानी है और कारगिल युद्ध विजय से जुड़ी हुई विभिन्न यादगारों एवं लेह का मानचित्र भी बहुत अच्छे से संजोया हुआ है।

दूसरे दिन सुबह जल-पान के बाद, हम लेह टैक्सी यूनियन से गाड़ी लेकर नुब्रा घाटी की ओर चल पड़े। कार्यक्रम के अनुसार हमें खरदुंगला पास (Khardungla pass) से गुजरते हुए, रात को हुन्डेर गांव में ठहरना था तथा दूसरे दिन प्रातः श्योक घाटी के मार्ग होते हुए पेगांग झील जाना था और उसी दिन चांग ला पास होकर लेह वापस आना था।

अतः हमने निर्देश के अनुसार Inner Line Pass बनवा लिया था,जो मूलतः पर्यावरण शुल्क है और हर यात्री के लिए लेना आवश्‍यक होता है। यह पास लेह जिला कमिश्नर कार्यालय से जारी किया जाता है और मार्ग में बनी कई चौकियों पर  इसकी जांच होती है।

हमें दो उंचे पर्वतों वाले मार्ग से होकर गुजरना था, जहां ऑक्सीजन की काफी कमी होती है। अतः पूर्व सावधानी के तौर पर एक ऑक्सीजन सिलेण्डर तथा सिलेण्डर लगाने की मशीन गाड़ी में रख लिए थे। इस तरह का सामान  लेह शहर की दुकानों में किराए पर मिल जाता है। नुब्रा घाटी के लिए लेह शहर से जैसे पहाडों पर चढना प्रारम्भ किया और ऊपर आने पर हमारे कार ड्राइवर ने कुछ क्षणों के लिए गाड़ी को रोक दिया क्योंकि वहां से पूरे लेह शहर का नजारा दिखाई दे रहा था। हमने यहां से लेह शहर के नजारों को अपने कैमरे में कैद किया। फिर हम नंगे पर्वतमालाओं के बीच ऊपर की ओर चढ़ने लगे।ऊपर की ओरचोटियां बर्फ से ढ़की हुई थी और उन पर से धूप, ऐसे लग रहा था जैसे पर्वतों के सिर पर कोई चांदी की टोपी पहना दी गई हो।

खरदुंगला पास लेह में उत्तरी दिशा में है, इसकी उंचाई 5359 मीटर है, जो सिन्धु घाटी तथा श्योक घाटी को जोड़ता है।  इसे विश्व के सबसे उंचाई वाले मोटर मार्ग के रूप में जाना जाता है। खरदुंगला मार्ग को नुब्रा घाटी का प्रवेश द्वार भी कहते है, जो सियाचीन ग्लेश्यिर की तरफ बढ़ता है। इसरोड़ की देखभाल सीमा सड़क संगठन द्वारा की जाती है।

खरदुंगला टॉप पर लेखक

खरदुंगला मार्ग लेह से चढ़ाई के समय, 39 कि.मी. की दूरी पर एकजांच चौकी (check point) है जिसे South pull  तथा उत्तरी दिशा में यानी नुब्रा घाटी की ओर कीजांच चौकी को North pull कहा जाता है। हम जब खरदुंगला मार्ग के सबसे ऊपर में पहुंचें तो नजारा सिर्फ बर्फ ही बर्फ, रास्ते में चारों तरफ, पर्वतों की चोटी तथा ढलान बर्फ से लदा पड़ा था।

यह जून महीने के तीसरे सप्ताह की बात है। हम सोच रहे थे कि दिसम्बर से अप्रैल महीने तक कितनी फीट बर्फ जमा होती होगी। इसलिए शीतऋतु में मार्ग बंद हो जाता है।  हमने खरदुंगला की चोटी का आनन्द लिया तथा यादगार के लिए कुछ फोटोग्राफ भी लिए। इस जगह पर पार्किंग की व्यवस्था नहीं के बराबर है और एक ही साइड में वाहनों की लम्बी कतार बन गई थी। वाहनों के धुएं से वातावरण प्रदूषित हो रहा था और जो भी ऑक्सीजन हमारे पास था वह भी कम हो रहा था। हम सिर्फ 10 मिनट रुके होंगे और फिर नुब्रा घाटी की ओर चल पड़े।

नुब्रा घाटी का रास्‍ता

रास्ते के बीच-बीच में खास कर दोनों पुलों में भारतीय सेनाओं के कैम्प दिखाई दिए और छः घण्टे पर्वतों को चीरते हुए हम नुब्रा घाटी के नजदीक दिस्कितबौद्ध मठ (Diskit Monastery) पहुंचे। इसे दिस्कित मठयादिस्कित गोम्पा के नाम से भी जाना जाता है। लगभग 10,480 फिट की उंचाई पर स्थित यह लेह जिले की नुब्रा घाटी मेंसबसे पुराना और सबसे बड़ा बौद्ध मठ है।

दिस्कित बौद्ध मठ पर लेखक

यहां  भगवान बुद्ध की एक विशाल मूर्ति देखकर तो हम स्तंभित रह गए। सोचने लगे कि पहले इस दुर्गम इलाके में इतने अच्छे बुद्ध विहार कैसे बनाए गए होंगे, वह भी उस समय जब वाहन जाने का कोई भी मार्ग नही था। यह काफी उंचाई पर है वहां से नुब्रा घाटी तथा नुब्रा और श्योक नदी का संगम स्थल भी दिखाई देता है।

नुब्रा घाटी: यह घाटी एक संगम स्थल है और पहाडों के बीच नदियों के तटीय क्षेत्र में रेतीली भूमि है और वहीं पर हुण्डेर गांव बसा है। हमने वहां उतर कर उस रेतीली भूमि पर, यहां के दो  कूबड वाले ऊंटों की सवारी का आनंद लिया। जिनके बारे में हमें बताया गया कि यहऊंट कीबैक्ट्रियन प्रजाति (कैमल्‍स बैक्टिरियन्‍स) है, जिसे मंगोलियाई ऊंट के रूप में भी जाना जाता है। यह मूल रूप से मध्य-पूर्वी एशिया के मैदानों में मिलता है। विश्‍व के अन्‍य स्‍थानों पर पाए जाने एककूबड वाले ऊंटों से अलग, इसकी पीठ पर दो कूबड़ होते हैं।

यहां पर्यटकों के लिए ‘कैमल सफारी’ की सुविधा है।

नुब्रा घाटी में बालू के टीले का दृश्य

यहां शाम देर से होती है, करीब साढ़े सात बजे के आसपास सूरज अस्त हो रहा था। रात को नुब्रा घाटी से सटे हुण्डेर गांव में ही विश्राम किया। यहां काफी मात्रा में होटल, गेस्ट हाउस तथा अस्थायी टेन्ट हाउस है। यहां पर्यटन की व्यस्‍ततम अवधि (peak seasons) शुरू हो चुकी थी  तथा हर जगह पर्यटकों की भीड़ देखने को मिली। हुण्डेर गांव में होटल/ गेस्ट हाउस सभी सुविधाएं मिल जाती है।

मैने गेस्ट हाउस के मालिक से बात की उसने बताया कि पिछले दो सालों से कोविड के चलते ‘टूरिस्ट’ नहीं के बराबर आ रहे थे। ऐसे भी छः महीने मई से अक्‍तूबर तक की रौनक है फिर सब कुछ बन्द हो जाता है तथा यहां के युवक लद्दाख के बाहर श्रीनगर, जम्मू, हिमाचल, चंडीगढ़ की तरफ किसी और दूसरे रोजगार की तलाश में चले जाते है। हमने सुबह अतिथि गृह के चारों ओर का नजारा लिया। सेब और आड़ू से लदे हुए पेड़ों का बगीचा तथा हमें सब्जी की खेती भी दिखाई दी जहां मटर, गोभी, धनिया आदि की फसलें थी। उन्होनें देशी काली गाय भी पाली हुई थी जिसके दूध से हमें गर्मागरम चाय पिलाई।

तीसरे दिन हम जल्दी में चाय पीकर सुबह 7.00 बजे ही पांगोंग झील की ओर चल पड़े। वही पर्वतीय मार्ग लेकिन इस बार श्योक नदी के साथ, कभी ऊपर तो कभी नीचें, कच्चे-पक्के रास्ते से बढ़ते चले गए। लेह का गाड़ी चालक अनुभवी था, अतः आराम से चिन्ता मुक्त होकर गाड़ी चला रहा था।

करीब पांच घण्टे बीतने के बाद हम आघम, डुर्बुक, लुकुंग, तांगस्टे, स्पेंगमिक तथा मीराखोकर होते हुए पांगोंग झील पहुंचे। सुबह का जलपान तथा दोपहर का भोजन भी हमने रास्ते में ले लिया था। पहुंचने के 15 मिनट पहले ही रास्ते से पांगोंग झील दिखाई देने लगी थी जिसकी एक झलक देखने के लिए हमउद्विग्नथे। अंत में हम पांगोंग झील पहुंचे यहां आर्मी का कैम्प, कुछ अस्थायी खान पान की दुकानें एवं गाड़ी खड़ी करने की पार्किंग बनाई गई है। जिसे देखने के लिए हमारे मन में एक विलक्षण कौतुहल चल रहा था, अब वही झील प्रत्यक्ष के रूप में हमारे सामने थी, जिसके दर्शन करने का काफी दिनों से इन्तजार था। इसका जल नीले रंग का और स्वच्छ तथा पारदर्शी है।

चारों तरफ पहाडों से घिरा हुआ भूभाग, चांदी जैसी बर्फ से लदी हुई पहाडों की चोटियां और उनके बीच में इस झील का दृश्य…जो व्‍यक्ति एक बार देख लेगा, जीवन भर याद रखेगा। बहती हुई ठण्डी- ठण्डी हवाओं के झोंकों के साथ कलकल करते स्‍वच्‍छ जल की आवाज भी जैसे बह रही थी। हम भी उस दृश्‍य को कभी भुला नहीं सकेंगे। यह झील समुद्र तल से 4225 मीटर. की उंचाई पर है और यह प्रकृति का एक अदभूत रूप है। इसके मनोरम दृश्य से आंखें नही हटती है।

वहां फोटो खिचवाने के लिए ‘’थ्री इडियट्स’’ फिल्म की शूटिंग का सामान जैसे स्कूटर और बैठने के लिए प्लास्टिक के तीन रंग वाले स्टूल किराये पर मिल रहा था। हम एक स्थानीय निवासी से मिले जो नजदीक गांव में रहता है उससे बातचीत की और उसने बताया कि भारतऔर चीन की झड़प के समय वह घोड़े पर गलवन घाटी तक भारतीय सेनाओं के लिए पानी आदि पहुंचा रहे थे।

लद्दाख की प्रसिद्ध पांगोंग झील को पर्यटकों के लिए फिर से खोल दिया गया है।

हम करीब दो घण्टे पांगोंग झील पर बिता कर लेह की ओर चल पड़े। इस झील का दर्शन हमारे लिए एक अदभूत एवं अविस्मरणीय रहेगा। रास्ते में चांगला पास (विश्व के तृतीय उच्चतम मोटर मार्ग) होकर गुजरे।  चांग ला (Chang La) लद्दाख़ क्षेत्र में स्थित एक पहाड़ी दर्रा है। यह 17,590 फीटकी ऊंचाई पर काराकोरम की लद्दाख़ पर्वतमाला नामक उपश्रेणी में लेह से पांगोंग त्सो (झील) के मार्ग पर स्थित है। इसे चांगथंग पठार का प्रमुख प्रवेशद्वार माना जाता है।

चांगला पास

चांगला पास भुस्खलन क्षेत्र में आता है। कहीं कहीं अवरूद्ध मार्ग पर मलवा हटाया जा रहा था हम करीब पांच घण्टे का सफर करके रात नौ बजे लेह में अपने विश्राम गृह में पहुंचे।इस यात्रा

के चौथे दिन हमने लेह में कुछ स्थानीय बौद्ध मठ, सिन्धु नदी के घाट तथा स्थानीय बाजार का दर्शन किया और पांचवें दिन हमने सुबह-सुबह लेह से विदा ली।

‘अतुल्य भारत’ के दोस्तों के लिए यह सलाहहै कि वे लेह शहर के बाहर घुमने के लिए निम्‍नलिखित बातें ध्यान रखें : –

  1. बेहतर होगा दो परिवार एक साथ जाएं और उसी के अनुसार गाड़ी बुक कराएं।
  2. नुब्रा घाटी तथा पांगोंग झील जाने के लिए परिवेश शुल्क देकर Inner Line Permit का प्रवेश पत्र लेकर Pass अपने पास सुरक्षित रखें।
  3. पूर्व सावधानी के लिए ऑक्सीजन सिलेण्डर तथा प्रयोग करने का साधन साथ लें, जो कि लेह में किराए पर मिल जाते हैं और स्थानीय चालक प्रशिक्षित होते हैं।
  4. सफर के समय भर पेट भोजन न लें तथा हल्का खाना खाएं। फ्लास्‍क में गुनगुना पानी रखें और बीच-बीच में पीते रहें।
  5. साथ में बिस्कुट, चॉकलेट, टॉफी तथा नार्मल सॉफ्ट ड्रिंक रख लेना बेहतर होगा।
  6. ऑक्सीजन की कमी (High Altitude Sickness) की पूर्व सावधानी के लिए कुछ दवाईयां अपने साथ जरूर रखें। यह दवाएं लेह में हर केमिस्ट की दुकान में मिल जाती है।
  7. खरदुंगला तथा चांगला पास क्रॉस करते समय बहुत ही कम समय के लिए रूकें।
  8. गर्म कपड़े पहने तथा कान ढकने के लिए मफलर, कैप आदि रखें।
  9. पोस्टपेड कनेक्शन का मोबाइल रखें। प्रत्येक परिवार कम से कम एक मोबाइल पूर्ण रूप से चार्ज करके रखें जो आपातकाल में काम आयेगा।
  10. नुब्रा घाटी/ हुण्डेर गांव में रात को ठहरने के लिए होटल/ गेस्ट हाउस आदि पहले से ही बुक करा लें तो बेहतर है।
  11. अगर रास्ते में विशेष समस्या आये तो भारतीय सेनाओं या सीमा सड़क संगठन (BRO) से सहायता लें।

 

डा.सुशांत कुमार सेनापति *प्रधान तकनीकि अधिकारी, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद – केंद्रिय भवन अनुसंधान संस्थान, रूड़की (उत्तराखंड)    (इस लेख में दिए गए सभी चित्र लेखक द्वारा उपलब्‍ध कराए गए हैं)

 

 

 

 

 

 

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